Thursday, December 23, 2010
"Ridiculously expensive", yet "worth the price"?
Those involved in producing this article had lost sight of the simple fact that the headline would have been an eye-catcher even without the injudicious use of the adverb "ridiculously". If prefixing it with an adverb was at all necessary, the good old "highly" could have served the purpose. This is, however, just one example. Journals nowadays are replete with instances of words being put to use without much thought. The magazine referred to at the beginning of this write-up was the India edition of an internationally renowned journal. Another internationally-renowned journal, which unfortunately does not yet have a full-fledged India edition, seems to take immense delight in talking about the "ruling military government" in Myanmar, as if there could be a government in opposition too. Can there be a government that is not in power, or which, in other words, does not "rule"? What is the point in asserting that it is a "government" that is "ruling" as well?
When international publications are prone to such follies, how can our own journals, with their treasure trove of "Indianisms" lag behind? With annoying regularity, one gets to read about the "ruling BSP government in Uttar Pradesh" or the "ruling BJP government in Gujarat"? It has, perhaps, never occurred to the editorial staff of newspapers and magazines that a party can be called a ruling party only if it is in power! One wonders whether they are aware of the nuances like while talking about developments in the ruling party one ought to say "ruling BSP" or "ruling BJP" but when referring to the government itself, it has to be the "BSP/BJP government". Alternatively, "regime" could be used in place of "government". But saying "ruling" and "government" in the same breath makes no sense.
Another example of superfluous usage of adjectives comes to mind wherein a "tangle" is referred to and the reader is also additionally told that the tangle is "vexed" as well! Any discerning reader would remember having come across "vexed Kashmir tangle" and "vexed Ayodhya tangle". It does not require one to be a genius to understand that a tangle seizes to be a tangle if it seizes to be vexed! Hence we can have a "vexed issue" or simply a "tangle" but not a "vexed tangle".
There is a strong likelihood of some people getting rankled about this objection to improper use of adjectives and adverbs. "What is the fuss?", they might ask. However, in times when hopes for a better future are hinged in a large degree on advancements in communication technology, the basic element of communication - the word, written or spoken - can not be overlooked. Proper usage of words is not just for the purists' delight. It is essential to ensure that what one is saying does not lend itself to much misinterpretation. Misinterpretation can not be completely ruled out in any communication but judicious use of words can go a long way in reducing its possibility.
Wednesday, November 24, 2010
Journalism: Profession or Business?
Saturday, November 6, 2010
Wherefore this ingenious piece of interior decoration?
Sunday, October 17, 2010
किस्सा बादशाह के तख़्त पर बैठने का
यह तो हर कोई जानता है कि 1990 में जब लालू पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे तब देश भर में मंडल आयोग की पृष्ठभूमि में एक ज़बरदस्त उत्तेजना का माहौल था. यह भी सच है कि उस दौर में राजनीति में पिछड़ी जातियों ने जोर-शोर से अपनी भागीदारी का दावा पेश किया था. बिहार में पिछड़ी जातियों में सबसे ज्यादा आक्रामक तेवर और आबादी यादवों की थी और इसी बिरादरी से लालू का भी ताल्लुक था. मगर, गौरतलब है कि 1990 के चुनावों के दौरान किसी ने नहीं सोचा था कि छपरा सीट से लोक सभा पहुंचा यह व्यक्ति सूबे पर शासन करने वाले हैं. लालू उस समय जनता दल में थे. बिहार तब अविभाजित था और विधान सभा में 324 सीटें थीं. जनता दल 122 सीटों के साथ सबसे बड़े दल के रूप में उभरा था. यह अलाग बात है कि बहुमत के लिए जितनी सीटें चाहिए थीं उनसे जनता दल कम से कम 41 सीट पीछे थी. उस कमी को तब आज के मुकाबले बेहतर स्थिति में रहने वाले वाम मोर्चा तथा अन्य छोटे मोटे दलों और निर्दलीयों के साथ मिल कर पूरा कर लिया गया. सबसे बड़े दल के नाते जनता दल को ही मुख्यमंत्री पद का दावेदार पेश करना था. कोई एक राय बन नहीं पा रही थी. जनता दल में पुराने समाजवादियों की लोबी ने भूतपूर्व मुख्यमंत्री राम सुन्दर दास का नाम सुझाया. नयी महात्वाकांक्षाओं से लैस एक अन्य वर्ग था जिसने उस समय दिल्ली में बैठे हुए लालू का नाम तजवीज किया. तय माना जा रहा था कि राम सुन्दर दास, जिन्होंने पिछले साल लोक सभा चुनावों में राम विलास पासवान को हराया था, मुख्यमंत्री बनेंगे. लेकिन उसी समय एक अजीबोगरीब घटना घटी. पुराने राजनीतिक बागी चंद्रशेखर, जो तब जनता दल के सांसद थे और बाद में चंद महीनों के लिए प्रधान मंत्री बनने की हसरत पूरी कर पाए, तत्कालीन राजनीतिक परिवेश में अपनी प्रासंगिकता अभ्व्यक्त करने को आतुर हो गए. उन्होंने एक दावेदार अपनी ओर से मैदान में उतार दिया - श्री रघुनाथ झा. जी हाँ, ये वही सज्जन हैं जो कि बाद में लम्बे समय तक लालू जी और उनकी पत्नी के अधीन काबीना मंत्री रहे. बाद में वे इतनी बार अलग अलग पार्टियों में अन्दर-बाहर होते रहे हैं कि अब याद रखना मुश्किल है कि आजकल कहाँ हैं. तो बहरहाल, झा जी के बारे में यह हर कोई, यहाँ तक कि चंद्रशेखर जी भी जानते थे कि उनका विधायक दल का नेता और अंततोगत्वा मुख्यमंत्री बनना तो संभव नहीं है. लेकिन इस घटना ने खेल ज़रूर पलट दिया. मैथिल ब्राह्मणों की एक खासी तादाद थी विधान सभा में जिन्होंने भाईचारा निभाते हुए झा जी के पक्ष में वोट डाल दिया. ऐसा माना जाता है कि झा जी की गैर मौजूदगी में उनके वोट राम सुन्दर दास को मिलते. बहरहाल, वोटों के इस विभाजन से राम सुन्दर दास पराजित हो गए और लालू के हाथ, उस समय अप्रत्याशित रूप से, मुख्यमंत्री की कुर्सी आ गयी. उसके बाद जो कुछ भी हुआ उस पर पहले ही लिखा-पढी हो चुकी है, दुबारा कहने की ज़रुरत नहीं है.
Monday, September 20, 2010
किससे ख़तरा है हिंदी को?
हर साल जब "हिंदी दिवस" की औपचारिकता निभाने का समय होता है तो इस बात पर "गंभीर बहस" छिड़ जाती है कि हिंदी को ख़तरा किन चीज़ों से है. यह बहस कितनी गंभीर होती है इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि अधिकांशतया लोग इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि हिंदी को अंग्रेज़ी से ख़तरा है जो कि "शासक वर्ग की भाषा है". एक झलक में बड़ा दमदार तर्क लगता है - भाषा अगर अभिजात्य-वर्ग का संरक्षण प्राप्त कर ले तो उसका पलड़ा भारी हो जाएगा. फिर याद आता है कि किसी मुंह फाड़ कर खड़े नरभक्षी राक्षस के रूप में पेश की जाने वाली अंग्रेज़ी की एक समय अपनी जन्मभूमि में क्या गति थी? ज्यादा नहीं, एक शताब्दी पूर्व तक, अँगरेज़ अपनी अंग्रेज़ी से काम तो चला रहे थे मगर सरताज का दर्ज़ा उन्होंने दे रखा था फ्रेंच को, जो कि उस देश की भाषा थी जिसने सदैव इंग्लैंड को "दुकानदारों की धरती" जैसे तिरस्कारपूर्ण विशेषणों से नवाज़ा था. उस दौर के इतिहास और साहित्य से परिचित कोइ भी व्यक्ति यह जानता है कि अंग्रेजों का अभिजात्य वर्ग अपने बच्चों के लिए फ्रांसीसी आया रखने के लिए बेताब रहता था ताकि उनकी आने वाली पीढी फ्रांस की जुबां और वहां की नफासत को बिना उस मुल्क में रहे ही आत्मसात कर सके.
इसके परिणाम क्या-क्या हुए इसकी तफसील में जाने का यह अवसर नहीं है लेकिन यह तथ्य सर्वविदित है कि आज अंग्रेज़ी तो दुनिया के कोने-कोने में मौजूद है, मगर अंग्रेजों को किसी समय, शायद, हीनभावना से भरने वाली फ्रेंच अपने मुल्क से बाहर - बेल्जियम जैसे अपवादों को छोड़कर - न जानी जा रही है न समझी जा रही है और न बोली जा रही है.
तब ऐसे में क्या यह माना जाय कि एक दिन हिंदी की कीर्ति-पताका संसार भर में लहरायेगी और अंग्रेज़ी इसके सामने बौनी पड़ जायेगी? कदापि नहीं. अंग्रेज़ी का क्या होगा इसकी चिंता करने के लिए दूसरे लोग हैं. लेकिन जहां तक हिंदी का सवाल है, इसको ख़तरा है, मगर किसी दूसरे देश की भाषा से नहीं अपने लोगों के संस्कारों से!
संस्कारों से हमारा यह तात्पर्य नहीं है कि हिंदी बोलने वालों को अपनी भाषा के लिए झंडा उठाकर नारा लगाना चाहिए. ये संस्कार हिंदी बोलने वालों में आवश्यकता से अधिक मात्रा में हैं और उनके समाज और उनकी भाषा का अपकार ही कर रहे हैं. संस्कारों से तात्पर्य है उस प्रवृत्ति से जिसके कारण हिंदी बोलने वाले लोग अपने शब्द भण्डार का गला घोंट रहे हैं! कहते हैं आदमी के भी कभी दुम हुआ करती थी. जब आदम-ज़ात ने पुश्त-दर-पुश्त उसका इस्तेमाल करना छोड़ दिया तो वह निकलनी ही बंद हो गयी. यह सही है या गलत, पता नहीं, लेकिन यह तो हम सभी जानते हैं कि किसी चीज़ को नष्ट करने का एक आसान उपाय है कि उसको व्यवहार में लाना छोड़ दिया जाए. जाने-अनजाने हिंदी बोलने वाले अपनी भाषा के साथ यही कर रहे हैं!
आजकल एक गीतकार महोदय फिल्मों में काफी नाम कमा रहे हैं. नाम है प्रसून जोशी. उन्होंने एक प्रसंग का कहीं उल्लेख किया कि एक गाना उन्होंने लिखा था जिसमें एक जुमला था - "सट कर बैठना". उन्हें बड़ी कोफ़्त हुई इस बात से कि विशुद्ध देशज शब्दावली से युक्त इस जुमले को न फिल्म का निदेशक समझ रहा था, ना संगीतकार, न पार्श्वगायक और न ही वे अभिनेता/अभिनेत्री जिनपर गीत फिल्माया जाना था. थक-हारकर उन्होंने "सट कर" को "पास-पास" से बदल दिया. हो सकता है यह किस्सा जोशी साहब ने मनचले किस्म के पाठकों के चेहरे पर शरारती मुस्कान लाने के लिए गढ़ लिया हो. मगर इसमें कोई दो राय नहीं कि धीरे-धीरे ऐसा लग रहा है जैसे कि आम बोलचाल के तमाम शब्द हिंदी से गायब होते जा रहे हैं. अपने व्यक्तिगत जीवन से एक उदाहरण लेते हैं. एक बार किसी अपार्टमेन्ट में जाना हुआ और जिनके घर जाना था उनका फ्लैट नंबर था इकतालीस. एक तड़क-भड़क वाले सज्जन, जो उस विशाल इमारत में एकमात्र प्राणी की तरह नज़र आये थे, नज़र आये तो हमने उनसे पूछा किधर है. नंबर सुनकर उन्होंने पूछा - इकतालीस मतलब थर्टी वन या फोर्टी वन? हमने उनके लिए तर्जुमा करके अपने गंतव्य तक पहुँचने में ही खैर समझी लेकिन यह विचार आज तक मन में उमड़ता है कि हम खादी बोली की बात करते हैं, ऐसे लोगों तक पहुँचते-पहुँचते क्या यह बोली सर के बल खादी नहीं हो जाती?
और हमारी ज़िंदगी में वो एकमात्र उदाहरण नहीं था जब हमने पाया कि लोग संख्याओं को हिंदी में बता पाने की क्षमता खो रहे हैं. और यह भी एक कटु सत्य है कि लोग केवल हिन्दी की संख्याओं से ही नहीं, रंगों और रिश्तों से भी अनजान हो चले हैं. अक्सर आप लोगों को बोलते सुनेंगे - फलां मेरा कजिन है. हिंदी में मौसेरा, चचेरा, फुफेरा, ममेरा जैसे आसान और असरदार शब्द हैं जो आपके "कजिनपने" को परिभाषित भी कर देते हैं लेकिन आप उसका इस्तेमाल नहीं करना चाहते. जब आप सिस्टर-इन-ला कहते हैं तो क्या यह स्पष्ट हो पाता है कि आप भाभी का ज़िक्र कर रहे हैं या साली का या सलहज का? क्या अंकल में चाचा, मामा, मौसा, फूफा जैसी स्पष्टता है? नहीं. फिर भी इन शब्दों का व्यवहार आप नहीं करेंगे.
उसी तरह से लाल, सफ़ेद, नीला, हरा, जैसे आसान और मीठे शब्दों के बावजूद आजकल कपडे इत्यादि खरीदते समय इन शब्दों का व्यवहार करना वर्जित है! आप रेड की बात कीजिये, ब्लू बोलिए, व्हाईट कहिये, रंग न बोलकर कलर बताइये! कई बार इस प्रवृत्ति के हास्यास्पद परिणाम दिखते हैं. एक बार सब्जी मंडी में सुना - भैया एक किलो पोटैटो दे दो! सब्जी वाले के चेहरे से साफ़ झलक रहा था कि वो नहीं समझ पाया. उंगली के इशारे से अंदाजा लगाकर आलू तौलकर दे दिया. समझ में नहीं आता कि एक दरिद्र सब्जी-विक्रेता पर "इम्प्रेशन" जमाकर लोगों को क्या मिल जाता?
हम नहीं कहते कि जो शब्द अंग्रेज़ी से लिए गए हैं उनके हिन्दी विकल्प ढूँढने की हास्यास्पद कोशिशें की जाएँ. सिगरेट को धूम्रपान दंडिका कहा जाए या ट्रेन को लौह्पंथगामिनी बताया जाए. मगर जो शब्द हमारी रोजमर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा रहे हैं, उनको हम क्यों त्याग रहे हैं? हिंदी को सबसे बड़ा ख़तरा इसी प्रवृत्ति से है.
Thursday, August 19, 2010
किस्सा इक बादशाह का
जिसने गिनी अपनी आख़िरी सांसें ज़मीन और आसमान के बीच,
त्रिशंकु की तरह!
हमेशा तो नहीं था वो इस तरह,
तो क्या हुई उसके हश्र की वजह
हुआ यों कि कभी उसकी शानदार बादशाहत थी
ज़मीन ही नहीं बाशिंदों के दिल पर भी हुकूमत थी
ऐशो-आराम और ताकत के नशे में डूबा हुआ था वो,
पर एक ज़रूरी बात न जाने क्यों भूला हुआ था वो
एक छोटा सा ज़ख्म था उसके जिस्म में, जिससे मवाद रिस रहा था
खुद था वो भले ही बेखबर, मगर उसका सारा बदन घिस रहा था
फिर एक घड़ी ऐसी भी आयी जब ज़ख्म ज़ख्म न रहा नासूर हो गया
ऐसे में बादशाह भी फुर्सत के कुछ लम्हे पाने को मजबूर हो गया
फैसला किया उसने, रहेंगे अभी कुछ रोज़ ऐसी जगह जहां सुकून से करवा सकें इलाज
खादिमों ने कहा, बजा फरमाते हैं हुज़ूर मगर इस बीच कौन देखेगा राज-काज
देखते थे खादिम सपना कि कुछ दिन के लिए ही सही, मगर पहनेंगे ताज
मगर बादशाह को किसी में दिख ही नहीं रही थी भरोसे वाली कोई बात
जब कोई भी मन को न भाया, क्या मंत्री क्या संतरी,
तो ऐलान किया बादशाह ने मेरी जगह तख़्त पर बैठेगी मेरी पालतू बकरी
फिर निकल पडा बादशाह अपनी बिगड़ी हुई सेहत बनाने को
यह सोच कर कि जब खादिम और अवाम अपने हैं तो क्या है घबराने को
लौटा जब बादशाह तो देखा चारों तरफ सिर्फ और सिर्फ जय-जयकार
सोचा उसने छोटी सी ज़मीन के लिए बकरी ही है ठीक मेरे लिए ज़मीन है बेकार
निकल पडा वो फिर जन्नत को फतह करने को
जहां, उसे लगा, फ़रिश्ते हैं खड़े सजदा करने को
मगर थी एक बात कभी उसकी समझ में नहीं आती
कि तमाशा देख रहा था ज़मीन पर रहने वाला उसके बचपन का एक साथी
साथी को बादशाह तो पसंद था मगर उसकी बादशाहत नहीं
ऐसे में क्यों न होती मन में पैदा चाहत नयी
फिर आया वह दिन जब साथी ने कर दी उसके महल पर चढ़ाई
मिमियाती हुई भागी बकरी, जन्नत वालों से दोस्ती भी बादशाह के काम न आयी
ज़मीन पर ज्यों ही ख़त्म हुई हस्ती उसकी
जन्नत में भी डूबी कश्ती उसकी
पूछा जन्नत वालों ने तुम हो कौन
ज़मीन का लिहाज़ करके तुम्हे झेल रहे थे अब न रहेंगे मौन
भागा बादशाह वापस ज़मीन की तरफ, कहते हुए बाशिंदों मुझे बचाओ
खिसियाए बाशिंदों ने कहा भागो लेकर बकरी और दुबारा नज़र न आओ
खेला नया दांव तब फिर बादशाह ने
बनाया दोस्त एक बदनाम डाकू को तख़्त वापस हासिल करने की चाह में
ज़रायम पेशा होने के बावजूद डाकू की एक हैसियत हुआ करती थी
इसलिए तख़्त पर रहते हुए बादशाह को उससे दिक्कत हुआ करती थी
अब जब गर्दिश ने कर दिया था बुरा हाल
तो बादशाह ने चली एक नई चाल
डाकू की दौलत और ताकत के साथ उसने बाशिंदों को कभी फुसलाना तो कभी धमकाना चाहा
और अब कोई बकरी-वकरी नहीं मैं खुद खिदमत में हाज़िर रहूँगा यह समझाना चाहा
बौखलाए बाशिंदों ने उसे गिरेबान से पकड़ा और दिया आसमान में उछाल
फिर से भीतर न चला आये, सोचकर मारी जन्नत वालों ने जोर की लात
बीच अधर में लटका हुआ सोचता रहा बेचारा
क्या फिर कोई ठौर अब होगा नहीं हमारा
Wednesday, August 18, 2010
पीपली लाइव: जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी
शीर्षक से बस यह समझकर मत बैठ जाइए कि अलग-अलग नज़रिए वाले लोग इस फिल्म को पसंद या नापसंद कर सकते हैं. यह संभावना तो हर बढ़िया से बढ़िया और बकवास से बकवास फिल्म के साथ रहती ही है. यहाँ तात्पर्य इस बात से है कि अपने नाम की ही तरह अनूठी "पीपली लाइव" एक ऐसी फिल्म है जो आपको, शायद हंसा सकती है अन्यथा बुरी तरह से झिंझोड़ कर तो रख ही दे सकती है. शुरुआत इस विचार से करने का कारण यह है कि अपने तथाकथित बौद्धिक तेवर के लिए मशहूर शहर के एक संभ्रांत सिनेमा हॉल में इस फिल्म को देखना उतना ही दिलचस्पी भरा, मगर साथ ही चौंकाने वाला, अनुभव रहा जितना कि अलग-अलग दर्शकों की भिन्न-भिन्न, बल्कि कुछ हद तक विपरीत, प्रतिक्रियाओं को देखना. जहां कुछ संवेदनशील दर्शक हर संवाद पर सिहर रहे थे, कसमसा रहे थे और इस बात को सोच-सोच कर बेचैन हो रहे थे कि कैसी विडंबनाओं से भरपूर ज़िन्दगी जी रहा है आज का हर आदमी, वहीं कुछ अन्य उत्साहीजन, जो शायद कुछ ज्यादा ही जिंदादिल थे, कडवी से कडवी सच्चाई को एक चुटकुले की तरह ही ले रहे थे. खैर....
अधिकाँश समीक्षाओं में यही पढने को मिल रहा है कि ग्रामीण जीवन, जो हिंदी सिनेमा से गायब हो चुका था, इस फिल्म में बहुत सालों के बाद दिखाई पडा है. एक हद तक सही भी है. मगर यह अधूरी दृष्टि है. यह फिल्म तो मूलतः इस बुनियादी बात पर ही चोट करती है कि हर आदमी, चाहे वो रसूख वाला हो या बेहैसियत अपनी ज़िन्दगी में हारा हुआ और बेबस है. बलवान द्वारा निर्धन के शोषण के सनातन विषय को उठाते हुए फिल्म उससे थोडा और आगे बढ़ जाती है और इस बेहद कडवे और खौफनाक सच को सामने ले आती है कि तथाकथित प्रभुत्वशाली तबका भी, अपने सारे ताम-झाम के बीच, उतनी ही फजीहत भरी ज़िन्दगी जी रहा है जितना कि भुखमरी से जूझता हुआ कोई गरीब.
ऐसा लगता है कि फिल्म हर रईस से उसका गिरेबान पकड़कर पूछ रही है " तुम किस बात पर इतरा रहे हो? क्या तुम यह नहीं देख पा रहे कि तुम्हारे महल की बुनियाद कितनी खोखली है?" वहीं वो गरीब तबके को भी आइना दिखा रही है और कह रही है " तुम खाली अपने अभाव का रोना रो रहे हो, हो तुम भी इसी फिराक में कि किसी तरह की तिकड़म भिडाकर थोड़ी मौज मस्ती कर ली जाए. तुम इस बात के लिए तैयार नहीं हो कि अपने विचार और आचरण में बड़ा बदलाव लाकर अपनी ज़िन्दगी सुधारी जाए".
किसी भी तबके को नहीं बख्शा गया है - नेता, नौकरशाह, नेता बनने की महत्वाकांक्षा रखने वाले टटपुन्जिये, या फिर सारी दुनिया को ज्ञान देने का दंभ भरनेवाले मीडियाकर्मी. अंतर यह है कि यहाँ सब कुछ विश्वसनीय और प्रामाणिक लगता है, किसी भी प्रकार की अतिरंजना से मुक्त. इसके अलावा पहली बार किसी फिल्म में नेताओं के बहाने केंद्र बनाम राज्य वाली, आजकल अक्सर दिखनेवाली, ओछी राजनीति पर भी करारा व्यंग्य देखने को मिला है. टीआरपी की दौड़ ने, टी वी चैनलों में काम करने वाले मेहनती नौजवानों को किस कदर संवेदनाशून्य और बुद्धिहीन बना दिया है, उसका इस फिल्म से बेहतर चित्रण शायद ही कहीं उपलब्ध हो सके. इसके अलावा बड़ी बात यह कि ग्रामीण क्षेत्रों के गरीबों को रूमानी करुना के साथ पेश नहीं किया गया है. उनकी समस्याओं को दर्शाते हुए ग्रामीण जीवन के उस पतन का भी निर्मम तटस्थता के साथ चित्रण है जो ग्रामीण क्षेत्रों की अवनति का एकमात्र नहीं तो एक प्रमुख कारण अवश्य है.
यह फिल्म सत्यजित राय की याद दिलाती है जो न जाने कहाँ-कहाँ से ऐसी शक्लें ढूंढ लाते थे जिनको देखकर ग़ुरबत और जहालत की ज़िंदगी नज़रों के आगे साकार हो जाती थी. बस एकाध जाने-पहचाने चेहरे हैं, बाकी सारे कलाकार न जाने कहाँ से लाये गए हैं, उनकी पोशाक कहाँ से जुटाई गयी है और उनका मेक अप कैसे किया गया है कि लगता है कि वाकई किसी हतभागे गाँव में पहुँच गए हैं! उस पर से संवाद, जो अंग्रेज़ी चैनल की स्टाइलिश पत्रकार से लेकर विपन्न किसान परिवार की बुढिया तक की लाचारी और कुटिलता दोनों को समान रूप से उद्घाटित कर देते हैं. और कहानी का तो कहना ही क्या! एक नीरस विषय, जिसमें ग्लैमरस किरदार भी यों पेश किये गए हैं कि उनकी साधारणता उजागर हो जाए, मगर फिर भी ऐसा समा बंधता है कि आप जम्हाई लेना भूल जायेंगे.
फिल्म की निर्देशिका ने, जिन्होंने निस्संदेह एक ऐसी शानदार शुरुआत की है जिसको आगे बरकरार रखना उनके लिए एक पहाड़ तोड़ने जैसा हो सकता है, हाल में ही बड़ी ईमानदारी से यह कहा है कि उनको इस बात की कोई उम्मीद नहीं है कि इस फिल्म से कोई बदलाव आ जाएगा. वाकई, महज फिल्म देखकर बदलाव कैसे आ जाएगा. बदलाव के लिए तो चेतना में, और उसके बाद व्यवहार में, परिवर्तन आवश्यक है. मगर एक बात अवश्य है- भविष्य की दिशा आपको इससे नहीं मिलेगी लेकिन इसको देखकर अपने वर्त्तमान के प्रति आप थोडा और सचेत अवश्य हो सकते हैं जो अपने आने वाले कल को बेहतर बनाने की अनिवार्य शर्त है.
Thursday, August 12, 2010
पुरानी शराब, लेकिन नया अंदाज़; असर ज़ोरदार
यह लंबा-चौड़ा नाम ही इस फिल्म का सबसे कमज़ोर पक्ष है वरना एक बार इसको देखने बैठ जाइये तो ढाई घंटे में यह दिल जीत लेती है. हाल के कुछ बरसों में हम हिंदी फिल्मों में "कहानी की वापसी" की बात सुनते रहे हैं. इस फिल्म के द्वारा दमदार संवादों की वापसी देखने को मिलती है. अगर आप यथार्थपरक सिनेमा ही देखना चाहते हैं तो आपको निराशा हो सकती है. कहने को तो फिल्म हाजी मस्तान और दाऊद इब्राहीम जैसे वास्तविक पात्रों पर आधारित है. मगर वो सब कुछ बेहद "फ़िल्मी" है. मगर यह फिल्मीपना बेहद दिलचस्प और दिलकश अंदाज़ में पेश हुआ है. माफिया जगत पर अनेकों फिल्में बन चुकी हैं. दो बाहुबलियों के बीच वर्चस्व की लड़ाई भी सिनेमा दर्शको के लिए अनजानी चीज़ नहीं है. समाज में मूल्यों के ह्रास पर तो काफी दिखाया जा चुका है ही. मगर यह फिल्म अपने अलग अंदाज़ में इस मूल्यों के ह्रास को अपराध-जगत की पृष्ठभूमि में रखते हुए रेखांकित करती है.
इसका शुरूआती दृश्य ही लीजिये - 1993 के बम धमाकों से दहली हुई बम्बई (फिल्म में बड़ी हिम्मत के साथ बार-बार यही पुराना नाम उचारा गया है) में एक पुलिस अफसर, ईमानदार और जांबाज़, खुदकुशी की कोशिश करता है. जब उसका सीनिअर उसको इस बुजदिली के लिए फटकारते हुए उससे इस बुजदिली का सबब पूछता है तब वो अफसर एक अजीब ही कहानी कहता है. उसका कहना है (ये दमदार संवाद की एक बानगी है) "सही और गलत में किसी एक को चुनना बहुत आसान होता है लेकिन दो गलत में से किसी एक को चुनना बहुत मुश्किल. मैंने गलत को चुनने में ही चूक की".
यहाँ दो गलत से तात्पर्य है सुलतान मिर्ज़ा (अजय देवगन) और शोएब (इमरान हाश्मी). मिर्ज़ा एक ऐसा अंडरवर्ल्ड सरगना है जो गलत काम करते हुए भी अपने "ज़मीर" को कभी नज़र-अंदाज़ नहीं कर पाता. वो कहता है - "मैं हर वो काम करता हूँ जिसकी इजाज़त सरकार नहीं देती लेकिन ऐसा कोई काम नहीं करता जिसकी इजाज़त ज़मीर नहीं देता". वो बम्बई शहर को, जहां वो बचपन में छिपकर अपने गाँव से आया था, बिलकुल अपने किसी प्रियजन की तरह मानता है और ऐसी किसी भी चीज़ को बर्दाश्त नहीं कर पाता जो उसके इस प्यारे शहर का माहौल बिगाड़े. अपने इस अंदाज़ के चलते वो नशीली दवाइयों की तस्करी और ज़हरीली शराब के कारोबार के रास्ते में दीवार बनकर खडा हो जाता है और इस क्रम में दूसरे अपराधियों का कोपभाजन बन जाता है. बावजूद अपने इस फलसफे के - "जब दोस्त बनकर कम चल सकता हो तो दुश्मनी क्यों करें". उसके उलट शोएब एक विशुद्ध लम्पट है जिसका बम्बई को लेकर नजरिया यह है - "मैं इस शहर को मुट्ठी में कर लेना चाहता हूँ. भले ही मुझे इसको मसल देना पड़े मगर मैं इसको अपने हाथ से फिसलने नहीं दूंगा". ज़मीर जैसी पुरानी चीज़ों का भी उसके लिए कोई महत्व नहीं है. वह सपना देखता है उस समय का जब - "सारी दुनिया राख की तरह नीचे और खुद धुंए की तरह ऊपर". उसका पिता एक गरीब और ईमानदार पुलिसवाला है जो अपने बेटे के क्रिया-कलापों से त्रस्त है. दूसरों की मदद के लिए तत्पर रहने वाला सुलतान शोएब को एक दूकान खुलवा देता है ताकि वो भी अपनी ज़िंदगी किसी ढर्रे पर चला सके. घटनाक्रम सुलतान को शोएब के दुस्साहस से प्रभावित करता है और सुलतान शोएब को अपना दाहिना हाथ बना लेता है. मगर शोएब को सुलतान का अनुशासन कहाँ तक बाँध सकता था? अपने जीवन के कुछ नाज़ुक क्षणों में सुलतान जैसे ही कुछ दिनों के लिए शोएब को अपने "धंधे" की कमान सौंप कर दिल्ली चला जाता है, शोएब अपना रंग दिखाना शुरू कर देता है. वो भूल जाता है सुलतान की नसीहत को - "याद रखना मैं जो तुम्हे दे रहा हूँ वो न तो विरासत है न ही खैरात". पूरे जोशोखरोश के साथ उन सभी कुकृत्यों में जुट जाता है जिनसे सुलतान नफरत करता है. सुलतान वापस लौटकर शोएब पर बरस उठता है. शोएब सुलतान के एहसानों को भूलकर उसी को मार डालता है.
यहाँ से शुरू होता है शोएब और उसकी कार्यशैली का वर्चस्व जिसका चरम बिंदु होता है मुंबई का सीरियल ब्लास्ट. शोएब अपने शैतान दिमाग से शहर का सुकून छीन लेता है और खुद देश से बाहर, देश के कानून की गिरफ्त से दूर, आराम से अपनी ऐयाशियों में डूबा रहता है. पुलिस अफसर विल्सन, जो शहर में आया था सुलतान को ख़त्म करने का जूनून लेकर, सोचने पर मजबूर हो जाता है कि उसने greater evil का चुनाव तो नहीं कर लिया. उसे शिद्दत से महसूस होता है कानून की नज़र में बराबर के गुनाहगार सुलतान और शोएब के चरित्र का मौलिक अंतर - "एक राजा बना अपने जिगर से दूसरे ने बनना चाहा अपनी जिद से". जिगर से जिद तक की गिरावट ही इस फिल्म की कहानी है. मनोरंजन की चाशनी में भरपूर डूबी हुई जिगर से जिद तक की गिरावट आपको केवल दोनों बाहुबलियों के गुनाहों में ही नहीं दिखेगा. उनके व्यक्तिगत जीवन में भी इसकी पर्याप्त झलक दिखती है.
सुलतान एक फिल्म अभिनेत्री को चाहता है और अपने एहतेराम से उसका दिल जीत लेता है. वो उससे शादी करने का फैसला तब करता है जब उसको यह पता चलता है कि वह औरत अब चंद दिनों की ही मेहमान है. वहीं शोएब अपनी प्रेमिका को मौज-मस्ती की वस्तु से ज्यादा नहीं समझता. दोनों ही रूमानियत के मामले में अनाडी हैं, लेकिन जहां सुलतान अपनी प्रेमिका को अमरुद भेंट करता है, शोएब अपनी प्रेमिका को देने के लिए शराब की बोतल ले जाता है बिना इस बात का ख्याल किये कि उसको यह चीज़ नापसंद होगी.
फिल्म आज के दौर में लुप्त हो चुकी शराफत का मर्सिया है, भले ही पृष्ठभूमि में केवल गुनाहों की दुनिया हो. बेहद मनोरंजक!
Sunday, July 4, 2010
त्यागी नरेश के वंशज
Thursday, March 25, 2010
Six suspects: A dense plot and a racy narrative
Vikas Swarup is a consummate story-teller. The incestuous world of critics may take its time in coming out with a verdict on the literary stature of this career diplomat. But a layman, who reads for pleasure, would have no qualms in admitting that going through his works always turns out to be worth the time and money (if you happen to be those who believe in buying books rather than borrowing them).
Swarup's flair was evident in his debut novel itself.
"Q & A" was certainly a novel which you could like or dislike but certainly not ignore. It is a pity that the book faded into the oblivion after its rather inferior celluloid version "Slumdog Millionaire" took the world by storm.
In his second novel "Six Suspects", Swarup embarks upon a more ambitious task with a plot that is much more dense than that of Q & A. However, this has not been at the cost of raciness of the narrative which may well be Swarup's USP.
The novel revolves around the murder of Vicky Rai, son of a powerful politician, a quintessential spoilt brat whose misdeeds seem to be straight out of newspaper headlines. The guy has, in a life span of thirty-two years, courted controversy after controversy. Sample this: he gets killed at a party he has thrown to celebrate his acquittal in a murder case having an uncanny resemblance to Jessica Lal's killing. His other wrongdoings seem reproduction of the BMW hit-and-run case and Salman Khan's alleged hunting spree in Rajasthan.
Six people, each of them carrying a gun, have been rounded up by people from the site of the murder (which explains the title of the novel).
The six suspects include Rai's father Jagannath, a mafia don-turned-politician, who believes in bending every rule and crossing every limit to achieve one's end. He decides to get his son bumped off, after getting some "enlightenment" from his disgraced spiritual guru, as the spoilt brat has become too much of a liability for him. However, it turns out that though implicated in the case, he was not actually responsible for the murder as the hitman hired for the purpose did not turn up. The other suspects include a famous film actress, for whom Vicky Rai had the hots, a petty slum-dwelling thief who looks forward to redeeming his life after falling in love with Rai's sister Ritu, a typically dumb American who had come to India to marry a desi girl only to learn that he has been duped, a retired IAS officer with a split personality that keeps him oscillating between his own debauched self and the acquired persona of "Gandhi baba" and lastly, a tribal from Andaman whom the police glibly declare to be a naxalite and hence the murderer of the rich Vicky and even kill in cold blood accusing him of trying to escape from custody.
Through the separate stories of these six suspects, Swarup takes through a roller-coaster ride of the India that we are too familiar with to sit back and take note.
The world of political intrigues gets quite an authentic depiction in the form of Jagannath Rai's manipulations. Equally gripping are the travails of the tribal Eketi, whose plight punctures the myth that Indians are a nation devoid of racial prejudice. The American Larry Page, who more often than not gets confused with the celebrated co-founder of Google, brings in a lot of humour through his own stupidities which are matched by the idiocies of those he gets to meet. However, the romance between the mobile thief Munna and Ritu Rai is a bit too fairy tale and much part of the actress Shabnam Saxena's story is just as credible as a Bollywood potboiler. UP wallahs (Swarup) happens to be one) may complain about certain discrepancies which are not expected from somebody familiar with the social fabric in the Hindi heartland. Shabnam, who has a Kayasth surname, is shown to be a resident of "Kurmitola". Jagannath Rai is depicted as a "Thakur" though it is rare to find people of the caste having the essentially Bhumihar surname. These inconsistencies notwithstanding, the novel is definitely enjoyable and anybody with a taste for thrillers shall go for it. If I were to give one reason for saying so, I would point out that it is not humanly possible to guess who actually killed Vicky Rai, before the author chooses to disclose it!
One hopes that the BBC, which is making a movie on the book, does justice to the suspense in the novel and does not end up doing a Danny Boyle - winning cinematic acclaim but killing the beauty of the book.
Friday, February 12, 2010
खुदा के एक बन्दे की शिव भक्ति
समय के दुष्चक्र ने आज कुछ ऐसा माहौल बना दिया है कि "वन्दे मातरम" का उच्चारण कुछ लोगों को अपनी आस्था पर कुठाराघात जैसा लगता है. यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि ऐसा उस देश में हो रहा है जहां आज से लगभग तीन सौ बरस पहले नजीर अकबराबादी जैसे कवि हुए थे. नजीर ने उस दौर में ठसके से तमाम हिन्दू देवताओं की शान में काव्य रचना की थी जब, इतिहासकारों के अनुसार, हमारे देश मध्ययुगीन अज्ञान के अन्धकार में डूबा हुआ था. नजीर की अमर रचना "महादेव जी का ब्याह" की एक झलक यहाँ पेश है:
पहले नाम गणेश का लीजे सीस नवाय
जासे कारज सिद्ध हों, सदा महूरत लाय
बोल बचन आनंद के, प्रेम प्रीत और चाह
सुन लो यारों ध्यान धर महादेव का ब्याह
जोगी जंगम से सूना वो भी किया बयान
और कथा में जो सूना उसका भी परमान
सुनने वाले भी रहे हंसी-ख़ुशी दिन-रैन
और पढ़े जो याद कर उनको भी सुख-चैन
और जिसने इस ब्याह की महिमा कही बनाय
उसके भी हर हाल में शिवजी रहे सहाय
ख़ुशी रहे दिन-रात वो कभी न हों दिलगीर
महिमा उसके भी रहे जिसका नाम "नजीर"
ऐसा नहीं लगता कि कोई हिन्दू भक्त कवि अपने इष्ट देवता के स्तवन की भूमिका तैयार कर रहा है? कविता बहुत लम्बी है. जिस किसी को भी पूरा पढने का सुयोग प्राप्त होगा, वह इस बात से चमत्कृत हुए बिना नहीं रह पायेगा कि कवि ने शिव-पार्वती की कथा को कितनी खूबसूरती से हृदयंगम किया है. नजीर एक मुस्लिम परिवार में पैदा हुए थे, इसलिए इस बात की संभावना तो नहीं ही है कि शिव-पार्वती की कथा उन्हें घुट्टी में पिलाई गयी हो. पर इतना अवश्य तय लगता है कि उस समय हिन्दू और मुस्लमान एक दुसरे के लिए कौतुक की वास्तु नहीं थे, जैसे कि दुर्भाग्यवश इस आधुनिक युग में बनते नज़र आ रहे हैं. इस विलक्षण कविता का अंत कैसे हुआ है यह भी देखिये :
यूं ठाठ हुआ यूं ब्याह हुआ अब और न आगे है बोलो
दंडवत करो हर आन "नजीर" और हरदम शिव की जै बोलो
आज महाशिवरात्रि के अवसर पर, आइये प्रार्थना करें कि निर्मल भावनाओं का फिर से प्रसार हो और भोले बाबा अपना थोड़ा सा भोलापन चालाकी से क्षत-विक्षत मानवता को उधार दे दें.
हर हर महादेव!
Monday, January 18, 2010
देश के जोशीले नौजवानों के नाम
देश के नौजवानों, गौर से देखो इस तस्वीर को और हमारी नसीहत याद रखो कि हमें इस बात से कोई लेना देना नहीं हैं कि तुम अपने काम में दक्षता रखते हो और तुम्हारे बल-बूते पर ही हम अपनी पीठ भी ठोका करते हैं. तुम यह कैसे भूल सकते हो कि तुम एक महान लाल फीता शाह देश के निवासी हो जहां पर तुम्हारा अस्तित्व तुम्हारे आकाओं की कृपा पर निर्भर करता है. इस लड़के को देखो, यह सोचता है कि अपने ढंग से काम करके यह हमारे लिए फिर वैसा ही कमाल कर दिखाएगा जैसा इसने दो साल पहले उस देश में जाकर किया था जिसके हाथों रणभूमि में आधी सदी पहले पराजित हो कर हम शर्मसार हुए थे. इस नादाँ को यह समझना चाहिए कि शर्म का एहसास हम लोगों को अपनी सुविधा के अनुसार होता है. और हमें सबसे ज्यादा शर्मिंदगी होती है काबिलियत से. काबिलियत हमें अपने खुद के नक्कारापन से रुबरु कर देती है जो कि हमारे लिए नाकाबिल-ए-बर्दाश्त है. इसलिए हमसे काबिलियत की बात तो करो ही मत. और यह भी याद रखो कि तुम यदि केवल अपने काम में बेहतर प्रदर्शन के लिए कानून तोड़ने की बात करोगे तो सज़ा भुगतोगे. हाँ, आका बन जाओ तब कानून तोड़ो, चाहे जितना मर्ज़ी हो. कोई तुमसे सवाल नहीं करेगा. आगे से याद रहे, तुम्हारा पाला एक ऐसे तंत्र से पडा है जो कुक्कुरधर्मिता में विश्वास रखता है. सिंह का चरित्र रखोगे तो ऐसे ही रौंद दिए जाओगे.
धमकियों और लानत-मलामतों के साथ,
तुम्हारे हुक्मरान
Sunday, January 17, 2010
"Rocket Singh", much more than what the title suggests
"Rocket Singh -Salesman of the Year" is a deceptively titled gem. I call the title deceptive because it gives the impression of a laugh riot, a sort of comic fairy tale where the hero achieves success despite, or rather because of, his naivete and simplicity. There are sequences that evoke laughter, no doubt, but they hit you hard instead of tickling you. I feel compelled to commit the blasphemy of comparing director Shimit Amin with the likes of Hrishikesh Mukherjee and Basu Chatterjee. These maestros of yore had helped Hindi cinema beautifully bridge the gap between entertainment and realism. In his own way, with ample help from scriptwriter Jaideep Sahni, Amin reminds us of the giants of the 1970s and 1980s by telling a story wherein the Indian middle class makes an authentic comeback. It is ironical that the middle class, despite being the target audience, has rarely been portrayed realistically in movies of the recent past. Amin and Sahni, who had earlier collaborated to come out with the unconventional "Chak De India", have this time performed the miracle of portraying mundane characters and events with a remarkable freshness. They deserve praise for showing the courage to have as their protagonist a sardar, who is totally at variance with all the stereotypes of this community. He is neither a macho patriot, nor a buffoon mechanic or taxi driver nor a dimwit head of a family whose members seem to be competing with him in terms of stupidity. Harpreet Singh Bedi is a quintessential boy-next-door with ambitions and concerns all of us can relate to. He is gifted with no exceptional talents, but is, nevertheless, a man of courage and persistence and also a strong sense of ethics. Through his eyes, we get to see the corruption and depravity that pervades the corporate world, a worrying reality of our times, which has not found as much expression in our films as the other great social malady - political corruption. We get to see the ugly side of the much-extolled corporate ethics, which believes that end justifies the means. The end here refers to maximising profit and means range from bribery to jobbery. The distraught young man tries to blow the whistle and to his horror discovers that it was nothing short of a cardinal sin in the eyes of his employers. The distraught sardar is asked by his friends to change the job as he was too nice for the evil system. However, he displays a heroic resilience and refuses to give up. Realising that the evil was widespread and that mere change of job need not necessarily bring the elusive happiness to his life, he looks deep within and also takes a hard look at his surroundings. This makes him realise that even amidst the all-pervading cynicism, people do crave for sincerity, honesty and trustworthiness. He also gets to understand that the brutality of the system was in no small measure responsible for the unscrupulousness in their nature.
Monday, January 11, 2010
The magic of 3 idiots
There is nothing new in movies being inspired from works of fiction. However, rarely do celluloid versions surpass the books on which they are based. 3 idiots is one such rare instance. Due apologies to Mr Chetan Bhagat who is already sulking over the insufficiency of the “credit” he has been given by the makers of the film. He is bound to cringe upon hearing that the movie has turned out to be even more riveting than his debut novel which, to be fair, was not an uninteresting piece at all. Leaving aside comparisons, one would add that dissimilarities between the movie and the novel far outnumber the similarities. It would not be an exaggeration to say that Rajkumar Hirani, who made no little impact with his “Munnabhai” series, has delivered what has so far been his best.
The movie is much more than a critique of Indian education system. It does criticize the system but does not tie itself into knots by suggesting an alternative model. It however, exhorts one to dare to be different. It encourages people to be, as the famous 1980s song had put it, “just a man and his will to survive”. The protagonist Rancho, played by Amir Khan, is a non-conformist but not a Hippie-style rebel. He has his own convictions and defends his friends’ right to have theirs. He is courageous enough to question and the pedantic style of his teacher in the classroom of his engineering college and irreverent enough to accost the boss of the institution whose rebuke drives a hapless student to suicide. His uniqueness does not make him a misfit. Instead, his malleability endears him to all and helps him survive the sniggers of those who disapprove of his ways. His ability to imagine and improvise helps him perform tasks that win the hearts of his worst critics and his most bitter rivals. His infectious vivacity rubs on his close friends who gather the courage to follow their hearts instead of treading the beaten track. He succeeds in convincing his friends, and the viewers as well, that if you tell yourself “all is well”, you get the courage to face your problems head-on even if not the ability to solve them. In an era when we, as Oscar Wilde had said “know the price of everything and the value of nothing”, he reaffirms the supremacy of “excellence” over “success”.
There is something magical about Hirani. He weaves a tale of improbabilities with an aplomb that compels the viewer to suspend disbelief. Can it be possible for a rich brat’s gardener to go to an engineering college bearing his name and getting a degree with that fake identity? Is it really possible to escape the humiliation of ragging by playing a nasty trick upon seniors hell bent upon bullying the freshers? Can one survive, let alone come out with flying colours, in an institute for four years after saying and doing everything that is close to the bone of teachers? There are many such episodes which appear absurd only when one has finished watching and is equipped with the wisdom of hindsight. The absurdities escape the incredulity of the viewer while the movie is being watched. And this is its biggest strength. Hirani did it in “Munnabhai MBBS” which saw the protagonist infusing life, and hence compassion as well, into a medical college and hospital in a way that was too silly to be true. He has repeated the magic with even greater success. Full marks to Mr Amir Khan who has played a character half his age with the conviction that only he is capable of. Compared with Khan’s act, how incongruous Rajendra Kumar and Jeetendra were when they played college-going characters in their hey day. Efforts of Madhavan and Sharman Joshi too need to be acknowledged. They were not playing their age either. They have got into their roles without displaying the frustration that comes while playing second fiddle to a more celebrated co-star. Omi Vaidya is a really good find while Boman Irani once again demonstrates his finesse at playing ruthless eccentricity. Dialogues are brilliant for which Hirani shares the credit with Abhijat Joshi. The musical score may not be of the best quality but Swanand Kirkire truly deserves a pat on his back for so beautifully capturing the various moods of the film, especially “give me some sunshine” and “behti hawa sa thaa wo”. Those who have not yet watched it are missing something of real value. So hurry!