Friday, February 12, 2010
खुदा के एक बन्दे की शिव भक्ति
समय के दुष्चक्र ने आज कुछ ऐसा माहौल बना दिया है कि "वन्दे मातरम" का उच्चारण कुछ लोगों को अपनी आस्था पर कुठाराघात जैसा लगता है. यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि ऐसा उस देश में हो रहा है जहां आज से लगभग तीन सौ बरस पहले नजीर अकबराबादी जैसे कवि हुए थे. नजीर ने उस दौर में ठसके से तमाम हिन्दू देवताओं की शान में काव्य रचना की थी जब, इतिहासकारों के अनुसार, हमारे देश मध्ययुगीन अज्ञान के अन्धकार में डूबा हुआ था. नजीर की अमर रचना "महादेव जी का ब्याह" की एक झलक यहाँ पेश है:
पहले नाम गणेश का लीजे सीस नवाय
जासे कारज सिद्ध हों, सदा महूरत लाय
बोल बचन आनंद के, प्रेम प्रीत और चाह
सुन लो यारों ध्यान धर महादेव का ब्याह
जोगी जंगम से सूना वो भी किया बयान
और कथा में जो सूना उसका भी परमान
सुनने वाले भी रहे हंसी-ख़ुशी दिन-रैन
और पढ़े जो याद कर उनको भी सुख-चैन
और जिसने इस ब्याह की महिमा कही बनाय
उसके भी हर हाल में शिवजी रहे सहाय
ख़ुशी रहे दिन-रात वो कभी न हों दिलगीर
महिमा उसके भी रहे जिसका नाम "नजीर"
ऐसा नहीं लगता कि कोई हिन्दू भक्त कवि अपने इष्ट देवता के स्तवन की भूमिका तैयार कर रहा है? कविता बहुत लम्बी है. जिस किसी को भी पूरा पढने का सुयोग प्राप्त होगा, वह इस बात से चमत्कृत हुए बिना नहीं रह पायेगा कि कवि ने शिव-पार्वती की कथा को कितनी खूबसूरती से हृदयंगम किया है. नजीर एक मुस्लिम परिवार में पैदा हुए थे, इसलिए इस बात की संभावना तो नहीं ही है कि शिव-पार्वती की कथा उन्हें घुट्टी में पिलाई गयी हो. पर इतना अवश्य तय लगता है कि उस समय हिन्दू और मुस्लमान एक दुसरे के लिए कौतुक की वास्तु नहीं थे, जैसे कि दुर्भाग्यवश इस आधुनिक युग में बनते नज़र आ रहे हैं. इस विलक्षण कविता का अंत कैसे हुआ है यह भी देखिये :
यूं ठाठ हुआ यूं ब्याह हुआ अब और न आगे है बोलो
दंडवत करो हर आन "नजीर" और हरदम शिव की जै बोलो
आज महाशिवरात्रि के अवसर पर, आइये प्रार्थना करें कि निर्मल भावनाओं का फिर से प्रसार हो और भोले बाबा अपना थोड़ा सा भोलापन चालाकी से क्षत-विक्षत मानवता को उधार दे दें.
हर हर महादेव!
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...हरदम शिव की जै बोलो!
ReplyDeleteबहुत ख़ूब. जय हो!