Sunday, October 2, 2011

एक ही रास्ता - जिसे पसंद करने के अलावा कोइ रास्ता नहीं


आज हम अपने दोस्तों से बीते दौर के खजाने के एक और नगीने का लुत्फ़ उठाने का आग्रह करेंगे. इस अनमोल रत्न का नाम है "एक ही रास्ता". हो सकता है कुछ लोगों ने देखी भी हो. किसी कारणवश समीक्षकों द्वारा इस फिल्म का उल्लेख कम ही देखते हैं जबकि कथावस्तु के लिहाज़ से यह एक (सही मायने में) "बोल्ड" फिल्म थी. 
अपने ज़माने के धाकड़ पटकथा लेखक पंडित मुखराम शर्मा की स्क्रिप्ट इस फिल्म की रीढ़ है और मुख्य भूमिकाएं निभाईं हैं अशोक कुमार, सुनील दत्त, मीना कुमारी और उस दौर की मशहूर बाल कलाकार डेजी ईरानी ने. कहानी शुरू होती है एक सीमेंट कंपनी में काम करने वाले अमर, उसकी कलाकार पत्नी मालती और उन दोनों के इकलौते बेटे राजा की हंसती-खेलती ज़िंदगी से. जो चीज़ इस फिल्म में सबसे पहले आपका ध्यान आकृष्ट करती है वह है इन तीनो पात्रों के पारिवारिक जीवन का अति सजीव चित्रण. इसे युवा सुनील दत्त और मीना कुमारी की अदाकारी और डेजी ईरानी की गुदगुदाती मौजूदगी का जादू कहें या बी आर चोपड़ा के निर्देशन का कमाल, इस तफसील को समीक्षकों के लिए छोड़ देते हैं. इतना ज़रूर है कि यदि आप इस फिल्म को देखें तो इन तीन पात्रों और इनके अलमस्त पारिवारिक जीवन का हिस्सा स्वयं को समझने से रोक नहीं पायेंगे. 
यह सुन्दर पारिवारिक जीवन अमर की कंपनी के मालिक प्रकाश बाबू (अशोक कुमार) को भी अपने चुम्बकीय आकर्षण में बाँध लेता है. प्रकाश बाबू बड़ी जायदाद के इकलौते वारिस हैं और अविवाहित हैं. शौक़ीन मिजाज़ हैं लेकिन ध्यान रखिये, उनके चरित्र में किसी प्रकार का लचरपन आपको नहीं दिखेगा. अपना घर बसाने को लेकर उहापोह की स्थिति में रहते हैं प्रकाश बाबू. अमर-मालती-राजा की गृहस्थी की जिंदादिल सादगी से जहां उनका दिल मसोस उठता है कि उनका अपना भी परिवार होता. लेकिन तरह-तरह के लोगों के साथ उठने-बैठने वाले प्रकाश बाबू पारिवारिक जीवन के इससे बिलकुल विपरीत उदाहरण याद करके घबराते भी हैं. 
बहरहाल, उनका बिजनेस अमर के चौकस प्रबंधन में फलता-फूलता रहता है और अमर भी अपनी ज़िंदगी में खुश है. मगर जैसा कि हर जगह होता है, प्रकाश बाबू के यहाँ अमानत में खयानत करने वाले लोग भी हैं. कंपनी के सीमेंट की कालाबाजारी करते हुए एक ट्रक ड्राइवर को अमर रंगे हाथों पकड़ लेता है और उसको जेल हो जाती है तथा उसका साथ देने वाले बेईमान मगर भीरु किस्म के मुनीम (जीवन) की नौकरी चली जाती है. सारी कार्रवाई अमर के द्वारा लिए गए फैसलों पर ही होती है. मुनीम सीधा प्रकाश बाबू के हाथ-पाँव जोड़कर नौकरी बचाने की कोशिश करता है मगर कोइ फायदा नहीं. कंपनी के मालिक अपने विश्वासी मैनेजर के हाथों अपना बिजनेस सौंपकर मस्त रहते हैं और मुनीम से बात करने से इनकार कर देते हैं. कुटिल मुनीम अपना दुखड़ा अपने पुराने मित्र ट्रक ड्राइवर के पास जाकर रोता है जो कि उसको इस बात का इशारा कर देता है कि जेल से बाहर निकलते ही वह अमर से बदला लेगा.
अमर से आमना-सामना होता भी है. मगर अमर भी हृष्ट-पुष्ट नौजवान ठहरा. ट्रक ड्राइवर की कुटाई होती है और वो अपने दोस्त मुनीम के साथ, जो कि अब फुटपाथ पर खोमचा लगाने लगा है, अगला वार करने की योजना बनाने लगता है. इधर अमर अपने बेटे के जन्मदिन की तैयारियों में व्यस्त हो जाता है. तमाम लोगों के साथ प्रकाश बाबू भी आमंत्रित हैं. वे चुलबुले राजा पर विशेष स्नेह रखते हैं. जन्मदिन के रोज़ घर में बच्चों का गाना-बजाना चलता रहता है और इसी बीच अमर को याद आता है कि कुछ ज़रूरी चीज़ें लानी बाकी हैं. वो घर से निकलता है अपनी सायकिल पर और उधर गेहुएं सांप की तरह घात लगाए ट्रक ड्राइवर तैयार रहता है. वो अपना ट्रक अमर के ऊपर चढ़ा देता है और उत्सव वाला घर मातमी बन जाता है. 
मालती और अमर दोनों अनाथाश्रम में पले-बढे थे एक दूसरे के साथी बनने से पहले. अपने वैधव्य से स्तब्ध मालती के लिए एक ओर अपना लंबा जीवन है दूसरी तरफ उसका बेटा राजा जो "पिता जी" की रट लगाए रहता है और जिसको हकीकत बताना भी मुश्किल है. संवेदनशील ह्रदय वाले प्रकाश बाबू इस बात को भूल नहीं पाते हैं कि अमर की जान उनके बिजनेस को सुचारू रूप से चलाने के क्रम में ही गयी थी. वे राजा को समझाते हैं कि "तुम्हारे पिता जी बीमार हैं और अस्पताल में हैं". इसी के साथ एकाकी जीवन जीने को अभिशप्त मालती को भी वे अपनी कला में संबल ढूँढने के लिए प्रेरित करते हैं और उसे एक डांसिंग स्कूल खोलने में मदद भी करते हैं. मगर समाज इन भावनाओं की शुद्धता को कहाँ समझ सकता था? कुटिल मुनीम के नेत्रित्व में सारा मोहल्ला, जिसने मालती की उसके दुर्दिन कभी सुध नहीं ली थी, उसको दुश्चरित्र घोषित करने और मोहल्ले से बाहर निकालने पर आमादा हो जाता है. प्रकाश बाबू यहाँ भी उसका बचाव करते हैं और सबके सामने उससे विवाह करने की घोषणा कर डालते हैं और पूरे साहस के साथ उस पर अमल भी करते हैं.
यहाँ से फिल्म एक अलग तेवर अख्तियार कर लेती है. प्रकाश बाबू की करुणा और मालती की कृतज्ञता के बीच आ खडी होती है इस सारे प्रकरण को समझ पाने में अक्षम बच्चे राजा का गुस्सा. जिन प्रकाश बाबू से वह हमेशा हिला-मिला रहता था, उनसे वह चिढने लगता है. जब मालती उसको समझाती है कि वो प्रकाश बाबू को "पिता जी" कहकर संबोधित किया करे तो वह भड़क उठता है. स्थिति और विकट हो जाती है जब प्रकाश-मालती के विवाह के फलस्वरूप एक बच्चे का जन्म होता है. एक ओर तनावग्रस्त मालती कमज़ोर होती जा रही है तो दूसरी तरफ घर की बेलगाम ज़बान वाली नौकरानी और अब उसके स्कूल के पास खोमचा लगाने वाले दुष्ट मुनीम के प्रलाप उसके सरल मन को विक्षेप से भर देते हैं. इसके बाद एक-के-बाद एक हरकतें होती हैं राजा के हाथों जिसके लिए उसकी माँ तक उससे रुष्ट हो जाती है मगर अद्भुत धीरता और औदात्य का परिचय देते हुए प्रकाश बाबू अंततोगत्वा बच्चे का दिल जीतने में सफल रहते हैं. 
जिन लोगों ने फिल्म न देखी हो उन्हें निम्न कारणों से अवश्य देखनी चाहिए -
१. बेजोड़ कहानी और पटकथा जो आपको कभी उकताने नहीं देती 
२. अमर, मालती और राजा के पारिवारिक जीवन का अति सुन्दर और सजीव चित्रण जो कि जितनी देर तक स्क्रीन पर रहता है आपके होठों से मुस्कराहट को दूर नहीं जाने देता 
३. प्रकाश बाबू का अद्भुत, शौक़ीन मगर फिर भी कुछ हद तक फकीराना,  चरित्र.
४. लच्छू महाराज की कोरियोग्राफी जो बाल कलाकारों और एक्स्ट्राज तक की भंगिमाओं में दीखती हैं.
कमियाँ हर फिल्म में होती हैं. ढूँढने पर इसमें भी मिल जायेंगी. लेकिन यदि आपने इस फिल्म को नहीं देखा है तो आप स्वयं को एक सुन्दर अनुभव से वंचित रखे हुए हैं.