Thursday, December 24, 2009

गले के अभिनय सम्राट


सुनने में अजीब लग सकता है - गले का अभिनय सम्राट क्या होता है? जवाब जानने के लिए ज़रुरत है एक नए नज़रिए से सुनने की उस मुहम्मद रफ़ी को जिसकी पुण्यतिथि आज सारे मनोरंजन से जुड़े रेडियो एवं टीवी चैनल मना रहे हैं। यद्यपि यह कहना पद रहा है कि रफ़ी को समर्पित कार्यक्रमों ने निराश ही किया है। किसी ने उनकी विशेषता को, उस पीढ़ी के सामने जो सिर्फ उनके नाम से ही वाकिफ है, सामने लाने की गंभीर कोशिश नहीं की है। "गाके से अभिनय" करना क्या होता है, यह अगर किसी को समझना है तो उसे सबसे पहले "कागज़ के फूल" का गीत "बिछड़े सभी बारी-बारी" दुबारा सुनना चाहिए। संबंधों की क्षणभंगुरता से हताश हुए मन की व्यथा को खूबसूरती से बयां करने वाले इस गाने के साथ रफ़ी ही न्याय कर सकते हैं। उनकी आवाज़ में इस गीत का मूड जीवंत हो उठता है। दर्द भरे गीत आज भी बनने रहे हैं, मगर सपाट गायकी और भरी-भरकम ओर्केस्ट्रा के बीच वे कितने निष्प्राण लगते हैं! गले की अदाकारी का एक और नायाब नमूना है "चित्रलेखा" का गीत "मन रे तू काहे न धीर धरे"। दार्शनिकता से ओत-प्रोत साहिर लुधियानवी की इस अमर रचना में रफ़ी ने अपने मधुर गाम्भीर्य से चार चाँद लगा दिए हैं। और बेफिक्री के सदाबहार प्रतीक "हम दोनों" के "हर फ़िक्र को धुंए में उड़ाता चला गया" को कोई कैसे भूल सकता है"? विषम परिस्थितियों पर जिंदादिली के सहारे विजय प्राप्त करने की आकांक्षा जो इस गीत में हैं, रफ़ी की आवाज़ में और भी जीवंत हो उठती है।

बच्चों के लिए लोरी माँ गाती है इसलिए इसकी परिकल्पना भी अधिकतर स्त्री स्वर में होती है। मगर रफ़ी इस सीमा को भी लांघ गए "ब्रह्मचारी" में "मैं गाऊँ तुम सो जाओ" के द्वारा! कहाँ मिलेगी अब ऐसी प्रतिभा? क्या कभी पूरी हो सकती है यह कमी?