Sunday, October 17, 2010

किस्सा बादशाह के तख़्त पर बैठने का

यह किसी मध्ययुगीन बादशाह के तख़्त पर बैठने की कहानी नहीं है. यह किस्सा है हमारे दौर के लालू जी का जो अपनी ज़िंदगी की सबसे अहम् लड़ाई लड़ते हुए नज़र आ रहे हैं. हमारे कुछ दोस्तों ने बहुत पहले यह इच्छा जाहिर की थी कि इस बात पर प्रकाश डाला जाए कि किंवदंती बन चुका यह नेता जब अपने राजनीतिक जीवन के चरमोत्कर्ष पर पहुंचा था उस समय की परिस्थितियाँ क्या थीं. आज वह माहौल नहीं है. और शायद इसी कारण आज से उपयुक्त कोई समय नहीं है जब अपने दौर के इस सर्वाधिक चर्चित नेता के जीते जी मिथक बन जाने की शुरुआत की कहानी को एक बार फिर से दिमाग में ताज़ा किया जाए.
यह तो हर कोई जानता है कि 1990 में जब लालू पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे तब देश भर में मंडल आयोग की पृष्ठभूमि में एक ज़बरदस्त उत्तेजना का माहौल था. यह भी सच है कि उस दौर में राजनीति में पिछड़ी जातियों ने जोर-शोर से अपनी भागीदारी का दावा पेश किया था. बिहार में पिछड़ी जातियों में सबसे ज्यादा आक्रामक तेवर और आबादी यादवों की थी और इसी बिरादरी से लालू का भी ताल्लुक था. मगर, गौरतलब है कि 1990 के चुनावों के दौरान किसी ने नहीं सोचा था कि छपरा सीट से लोक सभा पहुंचा यह व्यक्ति सूबे पर शासन करने वाले हैं. लालू उस समय जनता दल में थे. बिहार तब अविभाजित था और विधान सभा में 324 सीटें थीं. जनता दल 122 सीटों के साथ सबसे बड़े दल के रूप में उभरा था. यह अलाग बात है कि बहुमत के लिए जितनी सीटें चाहिए थीं उनसे जनता दल कम से कम 41 सीट पीछे थी. उस कमी को तब आज के मुकाबले बेहतर स्थिति में रहने वाले वाम मोर्चा तथा अन्य छोटे मोटे दलों और निर्दलीयों के साथ मिल कर पूरा कर लिया गया. सबसे बड़े दल के नाते जनता दल को ही मुख्यमंत्री पद का दावेदार पेश करना था. कोई एक राय बन नहीं पा रही थी. जनता दल में पुराने समाजवादियों की लोबी ने भूतपूर्व मुख्यमंत्री राम सुन्दर दास का नाम सुझाया. नयी महात्वाकांक्षाओं से लैस एक अन्य वर्ग था जिसने उस समय दिल्ली में बैठे हुए लालू का नाम तजवीज किया. तय माना जा रहा था कि राम सुन्दर दास, जिन्होंने पिछले साल लोक सभा चुनावों में राम विलास पासवान को हराया था, मुख्यमंत्री बनेंगे. लेकिन उसी समय एक अजीबोगरीब घटना घटी. पुराने राजनीतिक बागी चंद्रशेखर, जो तब जनता दल के सांसद थे और बाद में चंद महीनों के लिए प्रधान मंत्री बनने की हसरत पूरी कर पाए, तत्कालीन राजनीतिक परिवेश में अपनी प्रासंगिकता अभ्व्यक्त करने को आतुर हो गए. उन्होंने एक दावेदार अपनी ओर से मैदान में उतार दिया - श्री रघुनाथ झा. जी हाँ, ये वही सज्जन हैं जो कि बाद में लम्बे समय तक लालू जी और उनकी पत्नी के अधीन काबीना मंत्री रहे. बाद में वे इतनी बार अलग अलग पार्टियों में अन्दर-बाहर होते रहे हैं कि अब याद रखना मुश्किल है कि आजकल कहाँ हैं. तो बहरहाल, झा जी के बारे में यह हर कोई, यहाँ तक कि चंद्रशेखर जी भी जानते थे कि उनका विधायक दल का नेता और अंततोगत्वा मुख्यमंत्री बनना तो संभव नहीं है. लेकिन इस घटना ने खेल ज़रूर पलट दिया. मैथिल ब्राह्मणों की एक खासी तादाद थी विधान सभा में जिन्होंने भाईचारा निभाते हुए झा जी के पक्ष में वोट डाल दिया. ऐसा माना जाता है कि झा जी की गैर मौजूदगी में उनके वोट राम सुन्दर दास को मिलते. बहरहाल, वोटों के इस विभाजन से राम सुन्दर दास पराजित हो गए और लालू के हाथ, उस समय अप्रत्याशित रूप से, मुख्यमंत्री की कुर्सी आ गयी. उसके बाद जो कुछ भी हुआ उस पर पहले ही लिखा-पढी हो चुकी है, दुबारा कहने की ज़रुरत नहीं है.