Monday, September 20, 2010

किससे ख़तरा है हिंदी को?

अब जबकि "हिंदी दिवस" को बीते हुए एक सप्ताह बीत चुका है, तो ऐसे में इस बेचारी सी लगने वाली प्यारी सी भाषा के बारे में बात करना बेमौसम का राग छेड़ने जैसा लग सकता है. लेकिन सरोकार यदि सच्चे हों तो वे सदाबहार हो जाते हैं, उन्हें मौसम के अनुकूल होने या न होने की परवाह नहीं रह जाती. वैसे भी शमशान में जाकर तो वैराग्य की क्षणिक अनुभूति सबको हो जाती है लेकिन सत्य को आप तभी जान पाते हैं जब जीवन-मरण का प्रश्न आपको रात-दिन मथने लगता है. 
हर साल जब "हिंदी दिवस" की औपचारिकता निभाने का समय होता है तो इस बात पर "गंभीर बहस" छिड़ जाती है कि हिंदी को ख़तरा किन चीज़ों से है. यह बहस कितनी गंभीर होती है इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि अधिकांशतया लोग इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि हिंदी को अंग्रेज़ी से ख़तरा है जो कि "शासक वर्ग की भाषा है". एक झलक में बड़ा दमदार तर्क लगता है - भाषा अगर अभिजात्य-वर्ग का संरक्षण प्राप्त कर ले तो उसका पलड़ा भारी हो जाएगा. फिर याद आता है कि किसी मुंह फाड़ कर खड़े नरभक्षी राक्षस के रूप में पेश की जाने वाली अंग्रेज़ी की एक समय अपनी जन्मभूमि में क्या गति थी? ज्यादा नहीं, एक शताब्दी पूर्व तक, अँगरेज़ अपनी अंग्रेज़ी से काम तो चला रहे थे मगर सरताज का दर्ज़ा उन्होंने दे रखा था फ्रेंच को, जो कि उस देश की भाषा थी जिसने सदैव इंग्लैंड को "दुकानदारों की धरती" जैसे तिरस्कारपूर्ण विशेषणों से नवाज़ा था. उस दौर के इतिहास और साहित्य से परिचित कोइ भी व्यक्ति यह जानता है कि अंग्रेजों का अभिजात्य वर्ग अपने बच्चों के लिए फ्रांसीसी आया रखने के लिए बेताब रहता था ताकि उनकी आने वाली पीढी फ्रांस की जुबां और वहां की नफासत को बिना उस मुल्क में रहे ही आत्मसात कर सके. 
इसके परिणाम क्या-क्या हुए इसकी तफसील में जाने का यह अवसर नहीं है लेकिन यह तथ्य सर्वविदित है कि आज अंग्रेज़ी तो दुनिया के कोने-कोने में मौजूद है, मगर अंग्रेजों को किसी समय, शायद, हीनभावना से भरने वाली फ्रेंच अपने मुल्क से बाहर - बेल्जियम जैसे अपवादों को छोड़कर - न जानी जा रही है न समझी जा रही है और न बोली जा रही है.
तब ऐसे में क्या यह माना जाय कि एक दिन हिंदी की कीर्ति-पताका संसार भर में लहरायेगी और अंग्रेज़ी इसके सामने बौनी पड़ जायेगी? कदापि नहीं. अंग्रेज़ी का क्या होगा इसकी चिंता करने के लिए दूसरे लोग हैं. लेकिन जहां तक हिंदी का सवाल है, इसको ख़तरा है, मगर किसी दूसरे देश की भाषा से नहीं अपने लोगों के संस्कारों से!
संस्कारों से हमारा यह तात्पर्य नहीं है कि हिंदी बोलने वालों को अपनी भाषा के लिए झंडा उठाकर नारा लगाना चाहिए. ये संस्कार हिंदी बोलने वालों में आवश्यकता से अधिक मात्रा में हैं और उनके समाज और उनकी भाषा का अपकार ही कर रहे हैं. संस्कारों से तात्पर्य है उस प्रवृत्ति से जिसके कारण हिंदी बोलने वाले लोग अपने शब्द भण्डार का गला घोंट रहे हैं! कहते हैं आदमी के भी कभी दुम हुआ करती थी. जब आदम-ज़ात ने पुश्त-दर-पुश्त उसका इस्तेमाल करना छोड़ दिया तो वह निकलनी ही बंद हो गयी. यह सही है या गलत, पता नहीं, लेकिन यह तो हम सभी जानते हैं कि किसी चीज़ को नष्ट करने का एक आसान उपाय है कि उसको व्यवहार में लाना छोड़ दिया जाए. जाने-अनजाने हिंदी बोलने वाले अपनी भाषा के साथ यही कर रहे हैं!
आजकल एक गीतकार महोदय फिल्मों में काफी नाम कमा रहे हैं. नाम है प्रसून जोशी. उन्होंने एक प्रसंग का कहीं उल्लेख किया कि एक गाना उन्होंने लिखा था जिसमें एक जुमला था - "सट कर बैठना". उन्हें बड़ी कोफ़्त हुई इस बात से कि विशुद्ध देशज शब्दावली से युक्त इस जुमले को न फिल्म का निदेशक समझ रहा था, ना संगीतकार, न पार्श्वगायक और न ही वे अभिनेता/अभिनेत्री जिनपर गीत फिल्माया जाना था. थक-हारकर उन्होंने "सट कर" को "पास-पास" से बदल दिया. हो सकता है यह किस्सा  जोशी साहब ने मनचले किस्म के पाठकों के चेहरे पर शरारती मुस्कान लाने के लिए गढ़ लिया हो. मगर इसमें कोई दो राय नहीं कि धीरे-धीरे ऐसा लग रहा है जैसे कि आम बोलचाल के तमाम शब्द हिंदी से गायब होते जा रहे हैं. अपने व्यक्तिगत जीवन से एक उदाहरण लेते हैं. एक बार किसी अपार्टमेन्ट में जाना हुआ और जिनके घर जाना था उनका फ्लैट नंबर था इकतालीस. एक तड़क-भड़क वाले सज्जन, जो उस विशाल इमारत में एकमात्र प्राणी की तरह नज़र आये थे, नज़र आये तो हमने उनसे पूछा किधर है. नंबर सुनकर उन्होंने पूछा - इकतालीस मतलब थर्टी वन या फोर्टी वन? हमने उनके लिए तर्जुमा करके अपने गंतव्य तक पहुँचने में ही खैर समझी लेकिन यह विचार आज तक मन में उमड़ता है कि हम खादी बोली की बात करते हैं, ऐसे लोगों तक पहुँचते-पहुँचते क्या यह बोली सर के बल खादी नहीं हो जाती?
और  हमारी ज़िंदगी में वो एकमात्र उदाहरण नहीं था जब हमने पाया कि लोग संख्याओं को हिंदी में बता पाने की क्षमता खो रहे हैं. और यह भी एक कटु सत्य है कि लोग केवल हिन्दी की संख्याओं से ही नहीं, रंगों और रिश्तों से भी अनजान हो चले हैं. अक्सर आप लोगों को बोलते सुनेंगे - फलां मेरा कजिन है. हिंदी में मौसेरा, चचेरा, फुफेरा, ममेरा जैसे आसान और असरदार शब्द हैं जो आपके "कजिनपने" को परिभाषित भी कर देते हैं लेकिन आप उसका इस्तेमाल नहीं करना चाहते. जब आप सिस्टर-इन-ला कहते हैं तो क्या यह स्पष्ट हो पाता है कि आप भाभी का ज़िक्र कर रहे हैं या साली का या सलहज का? क्या अंकल में चाचा, मामा, मौसा, फूफा जैसी स्पष्टता है? नहीं. फिर भी इन शब्दों का व्यवहार आप नहीं करेंगे. 
उसी तरह से लाल, सफ़ेद, नीला, हरा, जैसे आसान और मीठे शब्दों के बावजूद आजकल कपडे इत्यादि खरीदते समय इन शब्दों का व्यवहार करना वर्जित है! आप रेड की बात कीजिये, ब्लू बोलिए, व्हाईट कहिये, रंग न बोलकर कलर बताइये! कई बार इस प्रवृत्ति के हास्यास्पद परिणाम दिखते हैं. एक बार सब्जी मंडी में सुना - भैया एक किलो पोटैटो दे दो! सब्जी वाले के चेहरे से साफ़ झलक रहा था कि वो नहीं समझ पाया. उंगली के इशारे से अंदाजा लगाकर आलू तौलकर दे दिया. समझ में नहीं आता कि एक दरिद्र सब्जी-विक्रेता पर "इम्प्रेशन" जमाकर लोगों को क्या मिल जाता? 
हम नहीं कहते कि जो शब्द अंग्रेज़ी से लिए गए हैं उनके हिन्दी विकल्प ढूँढने की हास्यास्पद कोशिशें की जाएँ. सिगरेट को धूम्रपान दंडिका कहा जाए या ट्रेन को लौह्पंथगामिनी बताया जाए. मगर जो शब्द हमारी रोजमर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा रहे हैं, उनको हम क्यों त्याग रहे हैं? हिंदी को सबसे बड़ा ख़तरा इसी प्रवृत्ति से है. 

2 comments:

  1. Aapki baat main ek dum sahmat hun. Aaj hindi bolne walon ko log gawar samajhte hain. Khair jo log yeh samajhte hain toh yeh unki buddhi ka fer hai... Mere khayal se koi bhi bhasha apne aap mein mahan hoti hai....

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  2. आपकी चिंता से पूरी तरह सहमत हूँ. अब तो ऐसे लोग भी मिल जाते हैं जिन्हें रास्ता बताइए कि आगे से 'बायें' की तरफ़ मुड़ जाइएगा, तो पलट के पूछेंगे 'लेफ़्ट या राइट?'

    ज़्यादा कुछ किया भी नहीं जा सकता क्योंकि आम बोलचाल की भाषा मल्टीचैनल-मल्टीप्लेटफ़ॉर्म-मीडिया की अपनाई भाषा से क़दमताल करने की कोशिश तो कर ही रही है, उसे शॉर्टहैंड को बढ़ावा देने वाले नए संचार माध्यमों के अनुरूप भी ढलना पड़ रहा है.

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