Thursday, August 12, 2010

पुरानी शराब, लेकिन नया अंदाज़; असर ज़ोरदार

वाकई में अगर पुरानी शराब को नए अंदाज़ में परोसा जाए तो उसका नशा कुछ और ही होता है. मौजूदा प्रसंग में पुरानी शराब है हिंदी सिनेमा में अंडरवर्ल्ड का चित्रण और नया अंदाज़ है "Once Upon a Time in Mumbaai". 
यह लंबा-चौड़ा नाम ही इस फिल्म का सबसे कमज़ोर पक्ष है वरना एक बार इसको देखने बैठ जाइये तो ढाई घंटे में यह दिल जीत लेती है. हाल के कुछ बरसों में हम हिंदी फिल्मों में "कहानी की वापसी" की बात सुनते रहे हैं. इस फिल्म के द्वारा दमदार संवादों की वापसी देखने को मिलती है. अगर आप यथार्थपरक सिनेमा ही देखना चाहते हैं तो आपको निराशा हो सकती है. कहने को तो फिल्म हाजी मस्तान और दाऊद इब्राहीम जैसे वास्तविक पात्रों पर आधारित है. मगर वो सब कुछ बेहद "फ़िल्मी" है. मगर यह फिल्मीपना बेहद दिलचस्प और दिलकश अंदाज़ में पेश हुआ है. माफिया जगत पर अनेकों फिल्में बन चुकी हैं. दो बाहुबलियों के बीच वर्चस्व की लड़ाई भी सिनेमा दर्शको के लिए अनजानी चीज़ नहीं है. समाज में मूल्यों के ह्रास पर तो काफी दिखाया जा चुका है ही. मगर  यह फिल्म अपने अलग अंदाज़ में इस मूल्यों के ह्रास को अपराध-जगत की पृष्ठभूमि में रखते हुए रेखांकित करती है. 
इसका शुरूआती दृश्य ही लीजिये - 1993 के बम धमाकों से दहली हुई बम्बई (फिल्म में बड़ी हिम्मत के साथ बार-बार यही पुराना नाम उचारा गया है) में एक पुलिस अफसर, ईमानदार और जांबाज़, खुदकुशी की कोशिश करता है. जब उसका सीनिअर उसको इस बुजदिली के लिए फटकारते हुए उससे इस बुजदिली का सबब पूछता है तब वो अफसर एक अजीब ही कहानी कहता है. उसका कहना है (ये दमदार संवाद की एक बानगी है) "सही और गलत में किसी एक को चुनना बहुत आसान होता है लेकिन दो गलत में से किसी एक को चुनना बहुत मुश्किल. मैंने गलत को चुनने में ही चूक की". 
यहाँ दो गलत से तात्पर्य है सुलतान मिर्ज़ा (अजय देवगन) और शोएब (इमरान हाश्मी). मिर्ज़ा एक ऐसा अंडरवर्ल्ड सरगना है जो गलत काम करते हुए भी अपने "ज़मीर" को कभी नज़र-अंदाज़ नहीं कर पाता. वो कहता है - "मैं हर वो काम करता हूँ जिसकी इजाज़त सरकार नहीं देती लेकिन ऐसा कोई काम नहीं करता जिसकी इजाज़त ज़मीर नहीं देता". वो बम्बई शहर को, जहां वो बचपन में छिपकर अपने गाँव से आया था, बिलकुल अपने किसी प्रियजन की तरह मानता है और ऐसी किसी भी चीज़ को बर्दाश्त नहीं कर पाता जो उसके इस प्यारे शहर का माहौल बिगाड़े. अपने इस अंदाज़ के चलते वो नशीली दवाइयों की तस्करी और ज़हरीली शराब के कारोबार के रास्ते में दीवार बनकर खडा हो जाता है और इस क्रम में दूसरे अपराधियों का कोपभाजन बन जाता है. बावजूद अपने इस फलसफे के - "जब दोस्त बनकर कम चल सकता हो तो दुश्मनी क्यों करें". उसके उलट शोएब एक विशुद्ध लम्पट है जिसका बम्बई को लेकर नजरिया यह है - "मैं इस शहर को मुट्ठी में कर लेना चाहता हूँ. भले ही मुझे इसको मसल देना पड़े मगर मैं इसको अपने हाथ से फिसलने नहीं दूंगा". ज़मीर जैसी पुरानी चीज़ों का भी उसके लिए कोई महत्व नहीं है. वह सपना देखता है उस समय का जब - "सारी दुनिया राख की तरह नीचे और खुद धुंए की तरह ऊपर". उसका पिता एक गरीब और ईमानदार पुलिसवाला है जो अपने बेटे के क्रिया-कलापों से त्रस्त है. दूसरों की मदद के लिए तत्पर रहने वाला सुलतान शोएब को एक दूकान खुलवा देता है ताकि वो भी अपनी ज़िंदगी किसी ढर्रे पर चला सके. घटनाक्रम सुलतान को शोएब के दुस्साहस से प्रभावित करता है और सुलतान शोएब को अपना दाहिना हाथ बना लेता है. मगर शोएब को सुलतान का अनुशासन कहाँ तक बाँध सकता था? अपने जीवन के कुछ नाज़ुक क्षणों में सुलतान जैसे ही कुछ दिनों के लिए शोएब को अपने "धंधे" की कमान सौंप कर दिल्ली चला जाता है, शोएब अपना रंग दिखाना शुरू कर देता है. वो भूल जाता है सुलतान की नसीहत को - "याद रखना मैं जो तुम्हे दे रहा हूँ वो न तो विरासत है न ही खैरात". पूरे जोशोखरोश के साथ उन सभी कुकृत्यों में जुट जाता है जिनसे सुलतान नफरत करता है. सुलतान वापस लौटकर शोएब पर बरस उठता है. शोएब सुलतान के एहसानों को भूलकर उसी को मार डालता है. 
यहाँ से शुरू होता है शोएब और उसकी कार्यशैली का वर्चस्व जिसका चरम बिंदु होता है मुंबई का सीरियल ब्लास्ट. शोएब अपने शैतान दिमाग से शहर का सुकून छीन लेता है और खुद देश से बाहर, देश के कानून की गिरफ्त से दूर, आराम से अपनी ऐयाशियों में डूबा रहता है. पुलिस अफसर विल्सन, जो शहर में आया था सुलतान को ख़त्म करने का जूनून लेकर, सोचने पर मजबूर हो जाता है कि उसने greater evil का चुनाव तो नहीं कर लिया. उसे शिद्दत से महसूस होता है कानून की नज़र में बराबर के गुनाहगार सुलतान और शोएब के चरित्र का मौलिक अंतर - "एक राजा बना अपने जिगर से दूसरे ने बनना चाहा अपनी जिद से". जिगर से जिद तक की गिरावट ही इस फिल्म की कहानी है. मनोरंजन की चाशनी में भरपूर डूबी हुई जिगर से जिद तक की गिरावट आपको केवल दोनों बाहुबलियों के गुनाहों में ही नहीं दिखेगा. उनके व्यक्तिगत जीवन में भी इसकी पर्याप्त झलक दिखती है. 
सुलतान एक फिल्म अभिनेत्री को चाहता है और अपने एहतेराम से उसका दिल जीत लेता है. वो उससे शादी करने का फैसला तब करता है जब उसको यह पता चलता है कि वह औरत अब चंद दिनों की ही मेहमान है. वहीं शोएब अपनी प्रेमिका को मौज-मस्ती की वस्तु से ज्यादा नहीं समझता. दोनों ही रूमानियत के मामले में अनाडी हैं, लेकिन जहां सुलतान अपनी प्रेमिका को अमरुद भेंट करता है, शोएब अपनी प्रेमिका को देने के लिए शराब की बोतल ले जाता है बिना इस बात का ख्याल किये कि उसको यह चीज़ नापसंद होगी. 
फिल्म आज के दौर में लुप्त हो चुकी शराफत का मर्सिया है, भले ही पृष्ठभूमि में केवल गुनाहों की दुनिया हो. बेहद मनोरंजक!

1 comment:

  1. सहमत हूँ आपसे कि ये एक बढ़िया फ़िल्म है. हालाँकि सुल्तान मिर्ज़ा के पात्र को स्थापित करने के लिए गढ़ी गई कहानी(पहले पटरी अलग करना और फिर ट्रेन दुर्घटना नहीं होने देना)लचर लगी.

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