Thursday, August 19, 2010

किस्सा इक बादशाह का

ये किस्सा है इक बादशाह का,
जिसने गिनी अपनी आख़िरी सांसें ज़मीन और आसमान के बीच,
त्रिशंकु की तरह!
हमेशा तो नहीं था वो इस तरह,
तो क्या हुई उसके हश्र की वजह
हुआ यों कि कभी उसकी शानदार बादशाहत थी
ज़मीन ही नहीं बाशिंदों के दिल पर भी हुकूमत थी
ऐशो-आराम और ताकत के नशे में डूबा हुआ था वो,
पर एक ज़रूरी बात न जाने क्यों भूला हुआ था वो
एक छोटा सा ज़ख्म था उसके जिस्म में, जिससे मवाद रिस रहा था
खुद था वो भले ही बेखबर, मगर उसका सारा बदन घिस रहा था
फिर एक घड़ी ऐसी भी आयी जब ज़ख्म ज़ख्म न रहा नासूर हो गया
ऐसे में बादशाह भी फुर्सत के कुछ लम्हे पाने को मजबूर हो गया
फैसला किया उसने, रहेंगे अभी कुछ रोज़ ऐसी जगह जहां सुकून से करवा सकें इलाज
खादिमों ने कहा, बजा फरमाते हैं हुज़ूर मगर इस बीच कौन देखेगा राज-काज
देखते थे खादिम सपना कि कुछ दिन के लिए ही सही, मगर पहनेंगे ताज
मगर बादशाह को किसी में दिख ही नहीं रही थी भरोसे वाली कोई बात
जब कोई भी मन को न भाया, क्या मंत्री क्या संतरी,
तो ऐलान किया बादशाह ने मेरी जगह तख़्त पर बैठेगी मेरी पालतू बकरी
फिर निकल पडा बादशाह अपनी बिगड़ी हुई सेहत बनाने को
यह सोच कर कि जब खादिम और अवाम अपने हैं तो क्या है घबराने को
लौटा जब बादशाह तो देखा चारों तरफ सिर्फ और सिर्फ जय-जयकार
सोचा उसने छोटी सी ज़मीन के लिए बकरी ही है ठीक मेरे लिए ज़मीन है बेकार
निकल पडा वो फिर जन्नत को फतह करने को
जहां, उसे लगा, फ़रिश्ते हैं खड़े सजदा करने को
 मगर थी एक बात कभी उसकी समझ में नहीं आती
कि तमाशा देख  रहा था ज़मीन पर रहने वाला उसके बचपन का एक साथी
साथी को बादशाह तो पसंद था मगर उसकी बादशाहत नहीं
ऐसे में क्यों न होती मन में पैदा चाहत नयी 
फिर आया वह दिन जब साथी ने कर दी उसके महल पर चढ़ाई
मिमियाती हुई भागी बकरी, जन्नत वालों से दोस्ती भी बादशाह के काम न आयी
ज़मीन पर ज्यों ही ख़त्म हुई हस्ती उसकी
जन्नत में भी डूबी कश्ती उसकी
पूछा जन्नत वालों ने तुम हो कौन
ज़मीन का लिहाज़ करके तुम्हे झेल रहे थे अब न रहेंगे मौन
भागा बादशाह वापस ज़मीन की तरफ, कहते हुए बाशिंदों मुझे बचाओ
खिसियाए बाशिंदों ने कहा भागो लेकर बकरी और दुबारा नज़र न आओ
खेला नया दांव तब फिर बादशाह ने
बनाया दोस्त एक बदनाम डाकू को तख़्त वापस हासिल करने की चाह में
ज़रायम पेशा होने के बावजूद डाकू की एक हैसियत हुआ करती थी
इसलिए तख़्त पर रहते हुए बादशाह को उससे दिक्कत हुआ करती थी
अब जब गर्दिश ने कर दिया था बुरा हाल
तो बादशाह ने चली एक नई चाल
डाकू की दौलत और ताकत के साथ उसने बाशिंदों को कभी फुसलाना तो कभी धमकाना चाहा
और अब कोई बकरी-वकरी नहीं मैं खुद खिदमत में हाज़िर रहूँगा यह समझाना चाहा
बौखलाए बाशिंदों ने उसे गिरेबान से पकड़ा और दिया आसमान में उछाल
फिर से भीतर न चला आये, सोचकर मारी जन्नत वालों ने जोर की लात
बीच अधर में लटका हुआ सोचता रहा बेचारा
क्या फिर कोई ठौर अब होगा नहीं हमारा

1 comment:

  1. कमाल की किस्सागोई! बहुत बढ़िया!!

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