Sunday, August 16, 2009

हमारे फिल्मी चैनल दर्शकों को जाने किस बीमारी से ग्रस्त समझते हैं जिसका इलाज वे घिसी-पिटी और तथाकथित रूप से देशभक्ति पर आधारित फिल्मों की कुनैन से करना चाहते हैंयह भी अजीब है की उनको इस बीमारी की याद २६ जनवरी, १५ अगस्त और अक्टूबर जैसे दिन ही याद आती है। शायद किसी ज्योतिषी ने उनको सिखा दिया है कि इन खास दिनों में कोई देशद्रोही नक्षत्र प्रबल हो जाता है इसीलिए उसका शमन करने के लिए सबका मगज चाट डालोकुछ फिल्में तो ऐसी हो गयी हैं जिनके निर्माताओं ने मानो इन तारीखों के लिए कोई कांट्रेक्ट साइन कर रखा हो - तिरंगा, बॉर्डर, क्रांति और भगत सिंह पर आधारित वे तमाम फिल्में जिनमें मनोज कुमार से लेकर अजय देवगन और बोब्री देओल तक अपने आपको अजमा चुके हैंइधर इस लिस्ट में कुछ नए नाम भी जुड़ गए हैं जैसे मैं हूँ , स्वदेस, रंग दे बसंती और चक दे इंडियाइसमें तिरंगा जैसी फिल्मों का चयन तो बिल्कुल समझ से परे हैफ़िल्म के नाम में ही तिरंगा हैबाकी तो सब केवल राज कुमार और नाना पाटेकर को आमने सामने देखने का रोमांच भर हैइसी तरह से मैं हूँ ना का भी देशभक्ति कनेक्शन आज तक समझ में नहीं आयायदि यह मान लिया जाए की नायक शाहरुख़ खान देश के लिए लड़ने वाला एक फौजी है तो फिर क्यों देव आनंद की प्रेम पुजारी देखी जाए? फ़िल्म का गाना भी है - ताकत वतन की हमसे है इज्ज़त वतन की हमसे है - जैसे बाकी लोग तो केवल देश का बेडागर्क ही कर रहे होंवैसे गाने से यह भी याद आया कि इन खास दिनों कुछ खास गीतों की भी धूम रहती है -

दिल दिया है जान भी देंगे वतन तेरे लिए, सुनो गौर से दुनिया वालों सबसे आगे होंगे हिन्दुस्तानी। सबसे आगे होने का इतना यकीन है तो गला फाड़ने की क्या ज़रूरत है, मस्त रहो! कल एक चैनल ने तो कमाल कर दियाउसने देश के स्वतंत्रता दिवस के लिए चुना स्लमडोग करोड़पति। जी हाँ उसी फ़िल्म का हिन्दी रूपांतर जिसने ऑस्कर में कामयाबी के झंडे फहराये थेलेकिन भइया इसमें अगर किसी को देशभक्ति नज़र रही हो तो वो कृपया हमारी समझ पर पड़ा परदा भी हटाने की कृपा करेहम इस फ़िल्म को लेकर अमिताभ बच्चन की राय से सहमत नहीं है लेकिन इसका १५ अगस्त से क्या खास कनेक्शन हैआख़िर प्रचार तो ऐसे ही हुआ था की स्वतंत्रता दिवस के खास मौके पर देखिये स्लमडोग करोड़पति! इससे भी ग़ज़ब तो यह हुआ कि फ़िल्म ख़त्म होने के बाद इस चैनल की अगली पसंद बनी मल्लिका शेरावत कि मर्डर जाने क्यों कबीर दास का वह दोहा याद रहा है - दिन भर रोजा रहत है, रात हनत है गाय! , , इसको भगवा जुमला समझें कबीर दस का सेकुलरिस्म विवादों से परे हैमगर हाँ, फिल्मों के चयन में हुए प्रमाद से मैं अवसाद ग्रस्त अवश्य हो गया हूँमजबूरन देशभक्ति के इन पर्वों पर मेरा दिल गुनगुनाने लगता है - रहने को घर नहीं है, सारा जहाँ हमारा, चीन अरब हमारा, हिंदुस्तान हमारा। या फिर जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैफिल्मों के नाम पर श्याम बेनेगल वगैरह याद आने लगते हैंस्वस्थ व्यक्ति को ज़बरदस्ती कुनैन दीजियेगा तो पगला ही जाएगा!

1 comment:

  1. चैनलों ने साल के ख़ास मौक़े मार्क कर रखे हैं. इन्हीं में से एक है- देशभक्ति का मौक़ा. देशभक्ति भी सीज़नल हो गई है!

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