Sunday, December 14, 2014

राज कपूर - परिभाषाओं में नहीं बंधने वाला एक कलाकार



            राज कपूर यदि आज जीवित होते तो उम्र के नब्बे साल पूरे कर रहे होते। परिस्थितियों और, कुछ हद तक, उनकी अपनी जीवन शैली ने यह सुनिश्चित किया कि वो लम्बी ज़िंदगी न जी सकें। आज से छब्बीस साल पहले इस जीनियस ने, जिसे बहुधा लोग "शोमैन" के सीमित खांचे में ही देख पाते हैं, अपनी आँखें मूँद लीं। मगर क्या यह कहा जा सकता है कि राज कपूर को एक छोटी ज़िंदगी मिली? उनकी शौक़ीन मिजाजी को प्रशंसा, ईर्ष्या, वितृष्णा और विद्रूप के मिले-जुले भावों के साथ याद करते हुए सहज ही कहा जा सकता है कि उनकी ज़िंदगी के चौंसठ साल जीवेत शरदः शतम की सनातन आकांक्षा पर भारी थे। 
          जिसकी हम तारीफ़ करना चाहते हैं उस पर कोई आकर्षक लेबल चस्पा करने की इच्छा बलवती हो उठती है। शोमैन की उपाधि उन्हें पहली बार जब भी जिस किसी के द्वारा दी गयी होगी वह ऐसी ही किसी बलवती इच्छा का शिकार रहा होगा। यह कहना हमारा मकसद नहीं है कि वे शोमैन नहीं थे। बेशक वे लोगों का मनोरंजन करने वाली फिल्में बनाते थे और व्यावसायिक सफलता के उन्होंने कीर्तिमान स्थापित किये थे। किन्तु एक फिल्मकार के तौर पर उनके सफर को देखने पर यह कहने का हौसला नहीं रह जाता कि वे महज़ एक तमाशेबाज़ थे जिसका उद्देश्य सिर्फ पैसा कमाना था।  
          आजकल कुछ महान नेताओं की कृपा से वंशवाद को खूब गरियाया जा रहा है। राज कपूर पॉलिटिक्स में नहीं थे। मगर सियासी मौसम ने अगर अपना असर फ़िल्मी दुनिया पर छोड़ा तो शायद उनको भी पृथ्वीराज कपूर के बेटे होने और इस वजह से मिली सहूलियतों के लिए कोसा जाएगा। बेशक राज कपूर में सिकंदर की भूमिका  निभा सकने की योग्यता तो नहीं ही थी। मगर वे तो उस दौर की उपज थे जब साहित्य की भांति सिनेमा भी अपने दौर की कहानियां कहने को बेचैन था। 
 और इस बात को कौन नकार सकता है कि आधुनिक भारत के मानव को परदे पर जीने के मामले में उन्होंने अपने पिता को मीलों पीछे छोड़ दिया। 
            हम लोग मूल्यांकन करने में भी कुछ रस्में गढ़ लेते हैं। एक रस्म यह बन गयी है कि राज कपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद की "तिकड़ी" का ज़िक्र किया जाएगा भले तीनों कभी एक फिल्म में भी साथ न आए हों। राज और देव तो एक दुसरे के साथ भी फिल्म में नहीं दिखे। इन तीनों के लिए भी सुविधाजनक खांचे तैयार कर लिए गए हैं - देव आनंद रूमानी भूमिकाओं के सिरमौर, दिलीप कुमार एक संजीदा ट्रेजडी किंग और राज कपूर चार्ली चैपलिन का भारतीय संस्करण!
          इन तीनों में कौन सर्वश्रेष्ठ था इस बचकानी बहस में हम नहीं पढ़ना चाहते मगर सबसे यह इल्तिजा ज़रूर करना चाहेंगे कि राज कपूर को याद करते हुए थोड़ी देर के लिए चार्ली चैपलिन को किनारे रख दीजिए। ऐसा करने पर ही देख पाएंगे उस राज कपूर को जो "आवारा" और "श्री 420" से बिलकुल अलग था। हालांकि यह दोनों भी बेहतरीन फिल्में थीं और राज कपूर इनमें जंचे भी थे। 
         आजकल प्रचार का ज़माना है और कोई भी ढलती उम्र वाला अभिनेता किसी फिल्म के लिए अपना नाक-नक्शा थोड़ा बिगाड़ लेता है तो इस बात की खूब चर्चा होती है कि देखिये कितना समर्पित और साहसी कलाकार है, किसी "इमेज" में नहीं बंधता है। ऐसे कलाकारों से बिना किसी प्रकार की नाराज़गी रखते हुए हम अनुरोध करेंगे कि एक बार "जागते रहो" को याद कर लीजिये। यह कहना कि उन्होंने इसमें अच्छी एक्टिंग की है, सही मगर बेहद नाकाफी होगा। इस फिल्म को देखते हुए जो एक और बात महसूस होती है वो है जोखिम उठाने और प्रयोग करने का उनका साहस। इस तस्वीर को देखिये और कल्पना कीजिये उस हौसले की जिसने उन्हें प्रेरित किया होगा यह अजीबोगरीब हुलिया लेकर लोगों के सामने आने की। 
गौर कीजिये कि राज कपूर उस समय जवान ही थे और "चरित्र अभिनेता" टाइप की भूमिकाएं नहीं कर रहे थे। यह फिल्म 1956 में आई थी। इसी साल वे "चोरी चोरी" में विशुद्ध "फ़िल्मी" ढंग से पेश आए थे। और महज एक साल पहले "श्री 420" की अपार सफलता ने उनके ग्लैमर को नई ऊँचाई प्रदान की थी। बावजूद इसके न सिर्फ उन्होंने इस फिल्म में मुख्य भूमिका निभाए बल्कि इसकी गैर-परम्परागत कहानी की ताकत को पहचाना और इससे बतौर निर्माता भी जुड़े। फिल्म में हलके-फुल्के नाच-गाने और प्रहसन दृश्य हैं मगर शहरी मध्यवर्गी जीवन की नैतिक सड़ांध को इस फिल्म ने परदे पर तब उकेरा था जब यथार्थवादिता एक "फैशन स्टेटमेंट" नहीं बनी थी। 
           एक और फिल्म जिसमें राज कपूर की भूमिका उल्लेखनीय कही जाएगी वो है "तीसरी कसम"। लोग इसको ज़्यादातर रेणु की कहानी और शैलेन्द्र के गीतों के लिए याद करते हैं मगर इन विशेषताओं के बावजूद यह फिल्म वांछित प्रभाव छोड़ने से वंचित रह जाती अगर राज कपूर ने हिरामन को साकार न कर दिया होता। वर्तमान में कई अभिनेताओं द्वारा "बिहारी" अथवा "पुरबिया" लहज़े में संवाद अदायगी कर देने पर लट्टू हो जाते समय कभी-कभी कोशी नदी के किनारे रहने वाले एक तांगेवाले को जीवंत कर देने वाले इस अद्भुत प्रयोग को याद कर लेना मुनासिब रहेगा। तुलना करने से चिढ होती है फिर भी प्रचलित अवधारणाओं में जीने वालों को यह चुनौती देने की इच्छा होती है कि "गंगा जमुना" के दिलीप कुमार और "तीसरी कसम" के राज कपूर को अगल-बगल रख लीजिये और फिर कहिये कि "खांटी" आदमी किसमें नज़र आता है।    
               बहरहाल, यह तो हुई अभिनेता राज कपूर की बात। बतौर निर्देशक भी उनकी यात्रा अनूठी ही रही। "आग" और "बरसात" के अनगढ़पन से "आवारा" और "श्री 420" तक आते-आते वे काफी मंज गए लगते हैं। "आवारा" में कैमरे को लेकर उनकी संवेदनशीलता भी प्रभावित करती है। वह ब्लैक एंड वाइट का दौर था और छायांकन की सीमाएं थीं। मगर परछाईं के द्वारा पात्रों के मनोभावों को कैसे पेश किया जा सकता है यह कमाल किसी को देखना है तो केवल दो दृश्यों के देख ले - एक जिसमें बालक राज की तरफ जग्गा धीरे-धीरे बढ़ रहा है और दूसरा जिसमें युवक राज रीता के साथ समुद्र तट पर खड़ा एक पेड़ पर उँगलियों से रेखाएं खींच रहा है। निर्देशक के तौर पर उनका वैविध्य आगे और भी अचम्भा  पैदा कर देता है जब "संगम" जैसी बेसिरपैर की फिल्म के तुरंत बाद वे "मेरा नाम जोकर"  जैसी क्लासिक लेकर हाज़िर हो जाते हैं और भारी घाटा उठाने के बाद फ़ौरन "बॉबी" जैसी चालू चीज़ परोस कर भरपाई कर लेते हैं! वाकई राज कपूर परिभाषा के परे हैं।  
         "बॉबी" और "संगम" के उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि राज कपूर में गज़ब का "बिज़नेस सेन्स" था जिसने उनको हिंदी सिनेमा के इतिहास के सफलतम निर्माताओं में शुमार कर दिया। मगर यहां भी यह अनोखी बात सामने आती है कि उन्होंने सिर्फ पैसा बनाने वाली फिल्मों को अपना संरक्षण नहीं दिया। बतौर निर्माता वे बहुत सी ऐसी कहानियों को दर्शकों के सामने पेश कर गए जो श्रेष्ठ थी मगर जिनकी व्यावसायिक उपयोगिता प्रथमदृष्टया संदिग्ध थी। बॉक्स ऑफिस के रिकॉर्ड तोड़ने तक ही जिसका सरोकार हो ऐसा निर्माता कभी "बूट पोलिश" की परवाह नहीं करता, "अब दिल्ली दूर नहीं" से जुड़ने का जोखिम नहीं उठाता "जिस देश में गंगा बहती है" में भले साइनिंग अमाउंट बढ़िया रखके काम कर लेता मगर अपना पैसा नहीं लगाता। पैरेलल सिनेमा के आविर्भाव के बाद उनकी फिल्में पलायनवादी मनोरंजन परोसती हुई लग सकती हैं मगर आज भी आर के फिल्म्स की प्रस्तुतियों में एक ईमानदारी नज़र आती है जो एंग्री यंग मैन के कथित अन्याय-प्रतिरोध से लगातार नदारद रहीं।  
            निर्माण, निर्देशन, अभिनय में प्रत्यक्ष और  छायांकन, कथा-पटकथा में राज कपूर के परोक्ष योगदान की चर्चा हो ही चुकी है। स्वर-सम्राज्ञी लता मंगेशकर ने उन्हें संगीत की सबसे बेहतरीन समझ रखने वाला फिल्मकार बताया है। उनकी फिल्मों के यादगार गीतों की सूची बनाने बैठा जाय तो लिखने वाला और पढ़ने वाला दोनों थक जाएंगे। 
          इतिहास को अपनी सुविधानुसार लिखने का दुस्साहस करने की आजकल बहुत सी कोशिशें हो रही हैं। ऐसे में यह छोटा सा सच कहने का साहस क्यों न किया जाय की हिंदी सिनेमा का इतिहास अधूरा रहेगा अगर उसमें राज कपूर पर पूरा एक अध्याय न हो?  

Tuesday, February 18, 2014

मेरे जीवन में अमरकांत

         अपनी जीवन-यात्रा पूरी करके हम लोगों को भावुक कर गए अमरकांत से मेरा वास्ता कुछ अजीब सा रहा है। उनकी मौजूदगी को अपने आस-पास टटोलने की आज कोशिश करता हूँ तो बरबस एक आह के साथ अंग्रेज़ी की वह कहावत मुंह से निकल पड़ती है - so near and yet so far! कितना अजीब है कि मैं उनसे एक बार भी मिल न सका बावजूद इसके कि उस इलाहाबाद शहर में रहते हुए मुझे नौ साल से ज्यादा समय बीत चुका है जहां अमरकांत ने नौजवानी के दिनों में पहली बार कदम रखा तो फिर अट्ठासी बरस से ज्यादा की उम्र में अपनी आखिरी सांस के साथ ही विदा हुए। कैसा संयोग है कि इस शहर में रहते हुए मेरे कदम आस-पास के सुदूर देहातों तक तो कई बार गए मगर अपने ठिकाने से महज़ एक मील की दूरी तय करके उनके दर्शन लाभ का अवसर कभी नहीं ही मिल पाया। नाना प्रकार के लोगों का संग-कुसंग चाहे अनचाहे प्राप्त हुआ मगर दो घड़ी के लिए भी इस अनूठे रचनाकार का साथ न मिला जिसका लिखा हुआ पढ़कर ऐसा लगता है कि कलम कागज़ पर नहीं मन पर चली है।  
       बहरहाल, मैं अपने को इस मामले में खुशकिस्मत समझता हूँ कि मैंने उनका साहित्य कच्ची उम्र में नहीं पढ़ा। उनका लेखन प्रेमचंद जैसा है। ऊपर से इतना सपाट लगता है कि एक किशोर को भी भ्रम हो सकता है कि उसने सब ग्रहण कर लिया। भले दस साल बाद दुबारा पढ़ते हुए विस्मय के साथ खीज पैदा हो कि क्या ख़ाक समझा था! उनका साहित्य सत्यजीत रे की फिल्मों जैसा है जिनको समझने के लिए खासी परिपक्वता चाहिए मगर जो विषय और प्रस्तुतीकरण के हिसाब से इतनी थीं कि सेंसर बोर्ड ने शायद ही किसी को "A" सर्टिफिकेट दिया हो। 
         अमरकांत उन बिरले लेखकों में से थे जिनका साहित्य पढ़कर ऐसा महसूस हुआ है कि जीवन कुछ और समृद्ध हो गया। उन्होंने न तो उपदेश दिया और न ही यथार्थ दिखाने के नाम पर पाठक के सर पर विकृतियों का बोझा पटका। वे हमेशा पाठक से बड़ी विनम्रता के साथ थोड़ा और सजग, थोड़ा और संवेदनशील, थोड़ा और जागरूक होने का आग्रह करते दीखते हैं। 
          "डिप्टी कलेक्टरी", "ज़िंदगी और जोंक", "दोपहर का भोजन" आदि उनकी मशहूर कहानियां हैं और निस्संदेह पठनीय हैं। मगर ऐसी भी कहानियां हैं जिनकी चर्चा कम हुई है मगर वे उतनी ही शक्तिशाली हैं। जिस अंचल में उनका जीवन बीता है, उसकी तरफ उनकी कलम आत्मीय होने के साथ बेहद पैनी है।     
         "फर्क" एक ऐसी ही बहुमूल्य कहानी है। छोटी सी चोरी को लेकर एक लड़के की जान की गाहक बनी हुई भीड़ थाने में एक दुर्दांत डकैत को देखकर जिस श्रद्धा-मिश्रित भय का परिचय देती है उसमें आप उस रॉबिनहुड संस्कृति के बीज देख सकते हैं जिसने हिंदी पट्टी में अपराधियों के आधिपत्य को स्थापित करने में उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है जितनी ऐसे तत्त्वों को मिलने वाले राजनीतिक प्रश्रय ने। "बस्ती" मोटे तौर पर एक बस्ती के बनने और उजड़ने की कहानी लग सकती है मगर इस कहानी के माध्यम से आप समझ सकते हैं कि कैसे मामूली लगने वाले मुद्दों से आंदोलन जन्म लेते हैं और फिर अपने ही ध्वजवाहकों की महत्वाकांक्षा के हाथों धराशायी भी हो जाते हैं।   
        फरिश्तों और हैवानों के बीच झूलते जनसंचार माध्यमों द्वारा बरगलाये जा रहे समाज के लिए इंसानों की कहानी कहता अमरकांत का साहित्य वैसा ही है जैसे मौसमी बुखार से टूटे शरीर के लिए टॉनिक। ऐसे में क्या यह घिसा-पिटा जुमला दोहराना ज़रूरी है कि वे अपनी कृतियों के माध्यम से हमारे बीच सदैव जीवित रहेंगे?