Wednesday, September 21, 2011

कानून: हिंदी सिनेमा का पहला नाच-गाना मुक्त प्रयोग





अभी के दौर में लुप्तप्राय हो चुकी कला फिल्मों और व्यावसायिक सिनेमा के बीच में क्या फर्क है? सिनेमा के अध्येता इस पर बेहतर व्याख्यान दे सकते हैं. मगर एक सामान्य दर्शक से अगर पूछा जाय तो वह तुरंत कह बैठेगा - कला फिल्मों में नाच-गाना नहीं होता था. बात काफी हद तक सही भी है. आजकल बहुत सी ऐसी फिल्में बनने लगी हैं जिनको लोग कला और व्यावसायिक फिल्मों के बीच की खाई को पाटने का श्रेय देते हैं. इनमें से कई फिल्में ऐसी हैं जो विशुद्ध व्यावसायिक मनोरंजन देती हैं लेकिन नाच-गाने के फ़ॉर्मूले से मुक्त होती हैं. इस पृष्ठभूमि में, आइये एक नज़र डालें इस प्रकार के पहले प्रयोग की, जो कि आधी शताब्दी पहले किया जा चुका था और जिसे लोगों ने सराहा भी था.
बात हो रही है वर्ष १९६० में प्रदर्शित हुई बी आर चोपड़ा द्वारा निर्देशित "क़ानून" की. बी आर चोपड़ा व्यावसायिक ताने-बाने में रहकर "धर्मपुत्र" और "धुल का फूल" जैसी फिल्में भी बना चुके हैं और "वक्त" जैसी विशुद्ध मसाला मल्टीस्टार फिल्म भी पेश कर चुके हैं. सरसरी तौर पर देखें तो ऐसा नहीं लगेगा कि "क़ानून" में वे कोइ विशेष प्रयोग करने बैठे थे. फिल्म एक किस्म की क्राइम थ्रिलर है. इसमें सस्पेंस ज़बरदस्त है. अशोक कुमार, नंदा और राजेन्द्र कुमार जैसे अपने दौर के चमकते सितारों ने अभिनय किया है. यानी कि मनोरंजन का सारा मसाला मौजूद. मगर फिल्म ख़त्म हो जाने के बाद दर्शक को इस बात का एहसास हो पाता है कि ढाई घंटे के दौरान एक गाना नहीं बजा. और यही इस फिल्म की ताकत है. कहना गलत न होगा कि उस दौर में यह फिल्म अपने समय से आगे चल चुकी थी. 
फिल्म बहुत दिलचस्प है, यद्यपि दोषरहित नहीं है. एक ह्त्या के मुक़दमे के इर्द-गिर्द कथा चलती है और हत्यारा कौन है यह जब सामने आता है तो वह नाटकीय और हास्यास्पद लगता है. मगर यह अवश्य है कि ऐसा तब लगता है जब आप फिल्म ख़त्म हो जाने के बाद उस पर सोचने बैठते हैं. देखते वक्त फिल्म दर्शक को अपने सम्मोहन पाश में लेने में पूर्णतया सफल रहती है. 
फिल्म की कहानी का खुलासा करना मुनासिब नहीं लगता क्योंकि मकसद लोगों को इसे देखने को प्रेरित करना है. कहानी बताने से सस्पेंस ख़त्म हो जाएगा और उससे फिल्म बेमजा भले न हो जाय थोड़ी कम मजेदार ज़रूर  लग सकती है. मगर कुछेक बातें बतलाते हैं जो कि आपकी दिलचस्पी को जगाएगी.
यह शायद पहली हिन्दी फिल्म है जिसमें सज़ा-ए-मौत का बड़े दमदार ढंग से विरोध किया गया है. कोइ विशेष प्रवचन नहीं दिया गया है मानवाधिकार वगैरह को लेकर. मुख्यतया इसमें इस बात पर बल दिया गया है कि अभियोजन की प्रक्रिया में हमेशा त्रुटियाँ रह जा सकती हैं. साक्ष्य इत्यादि तमाम ईमानदारी और चौकसी बरतने के बावजूद भ्रामक हो सकते हैं. ऐसे में इस बात की दुर्भाग्यपूर्ण संभावना बनी रहती है कि किसी व्यक्ति को ऐसे अपराध के लिए दंड दे दिया जाय जो उसने न किया हो. ऐसे में अगर मौत की सज़ा दे दी जाती है तो भूल सुधार की भी क्या गुंजाइश रह जाती है?
मगर यह सब पढने में कभी उतना रोचक नहीं लग सकता है जितना देखने में लगेगा. ब्लैक एंड व्हाईट दौर की फिल्मों से जिन्हें परहेज़ न हो वे अवश्य देखें.