Tuesday, February 18, 2014

मेरे जीवन में अमरकांत

         अपनी जीवन-यात्रा पूरी करके हम लोगों को भावुक कर गए अमरकांत से मेरा वास्ता कुछ अजीब सा रहा है। उनकी मौजूदगी को अपने आस-पास टटोलने की आज कोशिश करता हूँ तो बरबस एक आह के साथ अंग्रेज़ी की वह कहावत मुंह से निकल पड़ती है - so near and yet so far! कितना अजीब है कि मैं उनसे एक बार भी मिल न सका बावजूद इसके कि उस इलाहाबाद शहर में रहते हुए मुझे नौ साल से ज्यादा समय बीत चुका है जहां अमरकांत ने नौजवानी के दिनों में पहली बार कदम रखा तो फिर अट्ठासी बरस से ज्यादा की उम्र में अपनी आखिरी सांस के साथ ही विदा हुए। कैसा संयोग है कि इस शहर में रहते हुए मेरे कदम आस-पास के सुदूर देहातों तक तो कई बार गए मगर अपने ठिकाने से महज़ एक मील की दूरी तय करके उनके दर्शन लाभ का अवसर कभी नहीं ही मिल पाया। नाना प्रकार के लोगों का संग-कुसंग चाहे अनचाहे प्राप्त हुआ मगर दो घड़ी के लिए भी इस अनूठे रचनाकार का साथ न मिला जिसका लिखा हुआ पढ़कर ऐसा लगता है कि कलम कागज़ पर नहीं मन पर चली है।  
       बहरहाल, मैं अपने को इस मामले में खुशकिस्मत समझता हूँ कि मैंने उनका साहित्य कच्ची उम्र में नहीं पढ़ा। उनका लेखन प्रेमचंद जैसा है। ऊपर से इतना सपाट लगता है कि एक किशोर को भी भ्रम हो सकता है कि उसने सब ग्रहण कर लिया। भले दस साल बाद दुबारा पढ़ते हुए विस्मय के साथ खीज पैदा हो कि क्या ख़ाक समझा था! उनका साहित्य सत्यजीत रे की फिल्मों जैसा है जिनको समझने के लिए खासी परिपक्वता चाहिए मगर जो विषय और प्रस्तुतीकरण के हिसाब से इतनी थीं कि सेंसर बोर्ड ने शायद ही किसी को "A" सर्टिफिकेट दिया हो। 
         अमरकांत उन बिरले लेखकों में से थे जिनका साहित्य पढ़कर ऐसा महसूस हुआ है कि जीवन कुछ और समृद्ध हो गया। उन्होंने न तो उपदेश दिया और न ही यथार्थ दिखाने के नाम पर पाठक के सर पर विकृतियों का बोझा पटका। वे हमेशा पाठक से बड़ी विनम्रता के साथ थोड़ा और सजग, थोड़ा और संवेदनशील, थोड़ा और जागरूक होने का आग्रह करते दीखते हैं। 
          "डिप्टी कलेक्टरी", "ज़िंदगी और जोंक", "दोपहर का भोजन" आदि उनकी मशहूर कहानियां हैं और निस्संदेह पठनीय हैं। मगर ऐसी भी कहानियां हैं जिनकी चर्चा कम हुई है मगर वे उतनी ही शक्तिशाली हैं। जिस अंचल में उनका जीवन बीता है, उसकी तरफ उनकी कलम आत्मीय होने के साथ बेहद पैनी है।     
         "फर्क" एक ऐसी ही बहुमूल्य कहानी है। छोटी सी चोरी को लेकर एक लड़के की जान की गाहक बनी हुई भीड़ थाने में एक दुर्दांत डकैत को देखकर जिस श्रद्धा-मिश्रित भय का परिचय देती है उसमें आप उस रॉबिनहुड संस्कृति के बीज देख सकते हैं जिसने हिंदी पट्टी में अपराधियों के आधिपत्य को स्थापित करने में उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है जितनी ऐसे तत्त्वों को मिलने वाले राजनीतिक प्रश्रय ने। "बस्ती" मोटे तौर पर एक बस्ती के बनने और उजड़ने की कहानी लग सकती है मगर इस कहानी के माध्यम से आप समझ सकते हैं कि कैसे मामूली लगने वाले मुद्दों से आंदोलन जन्म लेते हैं और फिर अपने ही ध्वजवाहकों की महत्वाकांक्षा के हाथों धराशायी भी हो जाते हैं।   
        फरिश्तों और हैवानों के बीच झूलते जनसंचार माध्यमों द्वारा बरगलाये जा रहे समाज के लिए इंसानों की कहानी कहता अमरकांत का साहित्य वैसा ही है जैसे मौसमी बुखार से टूटे शरीर के लिए टॉनिक। ऐसे में क्या यह घिसा-पिटा जुमला दोहराना ज़रूरी है कि वे अपनी कृतियों के माध्यम से हमारे बीच सदैव जीवित रहेंगे? 

1 comment:

  1. Ise mera bhi bayan samjhen, hamare priy kathakar ko shraddhabjali

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