बहुतों को सुनने में यह अजीब लगेगा मगर जब मैंने यह फिल्म ख़त्म की तो मुझे बरबस "A WEDNESDAY " की याद आ गयी. दरअसल दोनों ही फिल्में यह सन्देश देती हुई लगती हैं कि रोजी-रोटी के जुगाड़ में जुटा हुआ आम आदमी एक आतंकवादी से कम साहसी या बुद्धिमान नहीं होता और इस प्रकार की गतिविधियों में लिप्त तत्वों को आगाह करती नज़र आती हैं कि अमन पसंद नागरिकों के जीवन से मत खेलो.
हालांकि यह भी सच है कि दोनों फिल्मों के बीच की समानता यहीं तक है. जहां "A WEDNESDAY " में आतंकवाद का मुद्दा केंद्र में था वहीं कहानी में यह नेपथ्य में है. इसके अलावा अन्य भिन्नताएं तो हैं ही, मसलन वो एक नायक-प्रधान फिल्म थी और यह नायिका-प्रधान, वह डेढ़ घंटे लम्बी थी और यह पूरे ढाई घंटे की है, उसमें मुख्य पात्र की वास्तविक पहचान पर पर्दा पडा ही रह जाता है इसमें बड़े रोचक ढंग से फिल्म के अंत में उजागर होता है, आदि.
बहरहाल फिल्म बेहतरीन है और कई कारणों से देखने योग्य है. सबसे प्रमुख कारण, हमारी नज़र में, यह है कि एक बार जब आप फिल्म देखना शुरू कर देते हैं तो ख़त्म होने तक आपको घड़ी देखने की ज़रुरत नहीं पड़ेगी. यह एक ऐसी सस्पेंस फिल्म है जिसका सस्पेंस सिर्फ क्लाइमेक्स में ही नहीं है हर फ्रेम ही आपको एक नया सस्पेंस पेश करता मिलेगा. फिल्म बेहद तेज़ गति से चलती है, बगैर किसी औसत फ़िल्मी मसाले के और लगातार दर्शक की दिलचस्पी बनाए रखती है जो कि आइटम नंबर और तमाम ऐसे चोंचलों के ज़माने में एक बड़ी बात है. इसके अलावा इसका विचित्र स्टार कास्ट भी ज़िक्र करने लायक है. फिल्म के ज़्यादातर कलाकार हिन्दी फिल्मों में पहले नहीं देखे गए हैं यद्यपि ऐसा सुनने में आता है कि उनमें से कई बँगला सिनेमा के स्थापित कलाकार है. इन कलाकारों की मौजूदगी और बम्बइया पैंतरों से मुक्त अदाकारी फिल्म को और ज्यादा प्रभावशाली बनाते हैं. किरदार भी बड़े दिलचस्प गढ़े गए हैं. नायिका अपने को एनआरआई बताती है और एकाएक गुमशुदा हो गए अपने पति को खोजती हुई विदेश से कलकत्ता पहुँच जाती है. यहाँ उसका साबका एक-से-बढ़कर-एक नमूनों से होती है जिनमें से ज़्यादातर तो पुलिस वाले ही हैं. पुलिसिया लोगों को न तो फरिश्तों की तरह दिखाया गया है न हैवानों की तरह. हाँ, हास्यास्पद रूप से काहिल ज़रूर दिखाया गया है जो कि वास्तविकता के करीब लगता है. इसके अलावा भी भांति-भांति के किरदार गढ़े गए हैं. अधेड़ उम्र का ऐसा भाड़े का हत्यारा जो दिन भर गले में दफ्तरी बाबू की तरह बैग लटकाए बीमा कंपनी में नौकरी बजाता है किसी ने पहले कहाँ देखा होगा?
तारीफ़ इस बात की भी करनी होगी कि फिल्म में कलकत्ता शहर को बड़े ही जीवंत रूप में दर्शाया गया है. इसके कैमरामैन अवश्य ही असाधारण प्रतिभा के धनी हैं जो कि दर्शक को इस एहसास से भर देते हैं कि वह स्वयं ही इस अजीबोगरीब महानगर की तंग गलियों, खँडहर होती इमारतों और दुर्गा पूजा के जश्न में डूबी भीड़ से खचाखच भरी सडकों से गुज़र रहा है.
और आखिर में, किसी भी फिल्म में जब विद्या बालन होती हैं तो वो फिल्म देखने की अपने आप में एक बहुत बड़ी वजह हो जाती है. वो एक ऐसी अभिनेत्री हैं जिनके लिए अब अलफ़ाज़ कम पड़ने लगे हैं. कोइ ऐसा भाव नहीं लगता जिसको अभिव्यक्त करना उनके लिए मुश्किल हो और एक भाव से दूसरे भाव तक का सफ़र भी वे बिजली की रफ़्तार से तय करती हैं. जब वे चलती हैं तो उनकी चाल-ढाल में एक गर्भवती स्त्री का कष्ट झलकता है. उनके चेहरे के भावों से प्रसंग के अनुसार हैरानी, झल्लाहट, अनुनय, हताशा, वात्सल्य, सब कुछ झलकता जाता है और संवाद अदायगी तो हैरत अंगेज़ होती है. मूल रूप से अहिन्दी भाषी होते हुए भी उच्चारण की स्पष्टता पेशेवर उद्घोषकों को लजा देगी. एक और रहस्यमय गुण है उनमें. रामायण में बाली के बारे में कहा गया है कि उसके सामने वाले का आधा बल निकल कर उसी में चला आता था. विद्या बालन का भी कुछ ऐसा ही मामला लगता है. कोई कितना भी बढ़िया अदाकार हो, उनकी मौजूदगी में ही फीका लगने लगता है! हाल में कहीं पढ़ा कि उनको "लेडी आमिर खान" कहा गया है तो ऐसा लगा कि यह तो आमिर खान के लिए तारीफ़ की बात है. "परिणीता" से लेकर "कहानी" तक के सफ़र को देखते हुए तो बरबस उनके लिए यह विचार मन में आ जाता है - न भूतो न भविष्यति.
ज़ाहिर है इतनी सारी वजहों के बावजूद अगर आपने "कहानी" नहीं देखी है तो आप एक बहुमूल्य अनुभव से वंचित हैं.
Aapne aisaa jaal bun diya hai ki nikalna mushkil hai. Dekhni hi hogee. Thanks!
ReplyDeletekamaal ki film hai aur Sujoy Ghosh apne pichhle sare kamon ko bahut pichhe chhod aye hain./ Vidya hamare paas ka usi tarah ka rare pearl hain jaise Irrfan ya Manoj Bajpeyi...
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