Monday, June 6, 2011

36 चौरंगी लेन: शातिर जवानी के हाथों छले गए मासूम बुढापे की दर्द भरी दास्ताँ




















यह साल 2011 भारतीय फिल्मों के मामले में पिछले साल से कितना अलग साबित हो रहा है. पिछले साल ऐसी ढेरों फिल्में आयीं थी जिनका इंतज़ार बेसब्री से किया जा रहा था. उनमें कुछ अपेक्षाओं पर खरी उतरीं तो कुछ ने निराश किया. कुछ उम्मीद से भी बेहतर साबित हुईं. इस साल न जाने क्या हुआ है कि किसी फिल्म को लेकर मन उत्सुक नहीं हो पा रहा है. ऐसे में अतीत के खजाने में छिपे रत्नों की तलाश स्वाभाविक थी. ऐसा ही नायाब एक रत्न हाथ लगा जिसका नाम है 36 चौरंगी लेन.
जो लोग इस फिल्म से वाकिफ नहीं हैं उनको बताते चलें कि यह दरअसल एक अंग्रेज़ी फिल्म है. इसके पात्रों ने अपने सारे संवाद, इक्का-दुक्का प्रसंगों को छोड़कर, अंग्रेज़ी में ही बोले हैं. मगर इससे हिंदी सिने-प्रेमियों को निराश होने की ज़रुरत नहीं है. फिल्म के संवाद बेहद सरल भाषा में हैं जिनको औसत दर्शक भी आसानी से समझ सकता है. सबसे दिलचस्प बात यह है कि सभी कलाकारों ने, ब्रिटिश मूल की जेनिफर कपूर को छोड़कर, अपने संवाद खालिस देसी अंदाज़ में बोले हैं जिसके चलते सबटाइटिल की ज़रुरत नहीं रह जाती है. मगर यह भी समझ लेना आवश्यक है कि जेनिफर, अपने अंग्रेज़ी लहजे के साथ, इस फिल्म की रीढ़ हैं और उनको देखने के बाद अपने यहाँ की सतही अभिनेत्रियों को देखकर सर धुनने को जी करता है.   
यह कहानी है एक अधेड़ एंग्लो-इन्डियन महिला वायलेट स्टोनेहम की, जो कलकत्ता के एक अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल में पढ़ाती हैं और किराए के मकान में नितांत एकाकी जीवन जीने को अभिशप्त हैं. कोमल ह्रदय और संकोची स्वभाव वाली इस महिला का कोई नहीं है इस दुनिया में, सिवाय एक अदद पालतू बिल्ली और वृद्धाश्रम में अपनी आख़िरी साँसे गिन रहे बीमार भाई के. बरसों से एक ही स्कूल में विद्यार्थियों को शेक्सपियर से परिचित करवाने वाली इस महिला के जीवन में एक नाटकीय मोड़ तब आता है जब वो अपनी एक पुरानी स्टूडेंट नंदिता से टकरा जाती हैं. अकेलेपन, प्रियजनों से वियोग और डरावने सपनों के रूप में इन सबकी गड्ड-मड्ड पुनरावृत्तियों से आजिज स्टोनेहम नंदिता को बरसों बाद देखकर बहुत खुश होती हैं और बहुत मनुहार के साथ उसको अपने घर कॉफ़ी पीने के लिए बुलाती हैं. नंदिता उनके घर अपने मित्र समरेश के साथ पहुँचती है. गुलछर्रे उड़ाने के लिए उपयुक्त अड्डा तलाश रहा यह युवा जोड़ा इस सहृदय अधेड़ महिला और दिन के अधिकाँश समय सुनसान रहने वाले उसके मकान को एक स्वर्णिम अवसर की तरह देखता है. 
स्टोनेहम के भावुक साहित्यिक मन को ताड़ते हुए समरेश का परिचय एक उदीयमान लेखक के रूप में स्टोनेहम से करवाया जाता है और साथ ही इस बात का दुखड़ा रोया जाता है कि कैसे शांत वातावरण के अभाव में यह प्रतिभावान (?) युवक अपने रचनाकर्म में जी-जान से नहीं जुट पा रहा है. दांव सही बैठता है और स्टोनेहम बड़े अनुग्रह के साथ समरेश को राजी कर लेती है कि दिन भर जब वे स्वयं स्कूल में व्यस्त रहती हैं उस समय वो अपनी साहित्य-साधना हेतु उनके घर के सन्नाटे का उपभोग कर लिया करे. अगले दिन से समरेश उनके घर नियम से पहुँचने लगता है और उसके चाय इत्यादि का प्रबंध करने के बहाने से नंदिता भी. साहित्य-साधना तो खैर क्या होनी थी उनकी मौज-मस्ती खूब होती है. विडम्बना यह है कि इस पूरे प्रकरण में अधेड़ महिला स्वयं को ही उपकृत समझती है कि इन दोनों ने उसके वीरान जीवन में कुछ रौनक ला दी. 
बहरहाल, समरेश को नौकरी मिल जाती है और वो नंदिता से शादी कर लेता है. भावुकता में किये गए अपने वादे को पूरी संजीदगी से निभाते हुए स्टोनेहम अपना पुराना ग्रामोफोन युवा दंपत्ति को तोहफे में दे देती है. बाद में अपने घर पर पड़े हुए पुराने संग्रहणीय रेकॉर्ड्स भी खुद उनके घर जाकर दे आती है. क्रिसमस नज़दीक आती है तो उसे याद आने लगता है कि कैसे समरेश ने एक बार खिलंदडपने में उसके हाथ का बना केक खाने की फरमाईश कर दी थी. आह्लादित स्टोनेहम नंदिता को फोन मिलाती है और उनको दावत का न्योता देती है. युवा दंपत्ति उहापोह में है. वो साफ़ इनकार करने की धृष्टता नहीं करना चाहता लेकिन उस बुढिया के लिए अपना वक्त भी बर्बाद करने को तैयार नहीं है, ख़ास तौर से तब जब वो इनके किसी काम की नहीं रह गयी है. अतएव उससे बहाना बना दिया जाता है कि क्रिसमस के दिन वे दोनों कलकत्ता से बाहर रहेंगे. उदास स्टोनेहम, जो इस बीच अपने भाई की मृत्यु के बाद से बिलकुल अकेली रह गयी है, दुखी मन से और आदत से मजबूर होकर क्रिसमस की तैयारी करती है. उसने फैसला कर लिया है कि नंदिता और समरेश भले ही उस दिन कलकत्ता में न हों, वो अपने हाथ से तैयार किया हुआ केक उनके घर पहुंचा आयेगी ताकि जब वो वापस घर लौटें तो उसका आनंद उठा पाएं. 
क्रिसमस के खुमार में डूबे माहौल के बीच वो एक टैक्सी खोजती है और उसमें बैठकर समरेश-नंदिता के घर की तरफ निकल पड़ती है. वहां पहुंचकर सबसे पहले तो वो उनके घर के बाहर गाड़ियों की भरमार देखकर बौखला जाती है. जब वो उनके कांच के फाटक के नज़दीक पहुँचती है तो उसे यह देखकर और भी आश्चर्य होता है कि अन्दर जोर-शोर से दावत चल रही है. सबसे ज्यादा धक्का उसे तब पहुंचता है जब वह देखती है कि समरेश और नंदिता बड़े लुत्फ़ के साथ मेजबानी कर रहे हैं और उसी के द्वारा तोहफे में दिए गए ग्रामोफोन और रेकॉर्ड्स की मेहमानों द्वारा की जा रही सराहना पर इतरा रहे हैं. हताश स्टोनेहम थके कदमों से पैदल वापस लौटने लगती है रास्ते में उसकी पोटली को, जिसमें उसने अपना केक पैक कर रखा है, एक आवारा कुत्ता सूंघता है और उसके साथ-साथ चलने लगता है. 
इस फिल्म के लिए अपर्णा सेन को सर्वश्रेष्ठ निदेशक का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था. अचरज की बात यह है कि जेनीफर को अभिनय के लिए यह पुरस्कार नहीं मिला. फिल्म 1981 में रिलीज़ हुई थी जब उनकी उम्र पचास साल की भी नहीं रही होगी. मगर उनको परदे पर देखकर कौन विश्वास करेगा? चलने का, सीढियां चढ़ने का, हँसते हुए मुंह पर हाथ रख लेने का अंदाज़, सब कुछ एक बीते ज़माने की भद्र महिला का स्मरण करा देता है. फिल्म का निर्माण जेनिफर के पति शशि कपूर ने किया है. यह एक अबूझ पहेली है कि अभिनेता के रूप में लगभग हमेशा एक लापरवाह किस्म की अल्हड़ता झलकाने वाले शशि कपूर एक फिल्म-निर्माता के रूप में इतने संजीदा कैसे हो जाते थे. खैर.....लिखने का मकसद फिल्म के विश्लेषण से ज़्यादा उन लोगों को, जिन्होंने देखी नहीं है, देखने के लिए प्रेरित करना है. यदि ऐसा हुआ तो प्रयास सार्थक होगा. 
पुनश्च: कुछेक को आपत्ति हो सकती है इस आलेख के शीर्षक को लेकर. "मासूम बुढापा" और "शातिर जवानी"! यह कैसे संभव है? राष्ट्रकवि दिनकर ने भी कहा है "कुरुक्षेत्र" में :
यह कौन रोता है वहां 
इतिहास के अध्याय पर, 
जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहू का मोल है,
प्रत्यय किसी बूढ़े, कुटिल नीतिज्ञ के व्यवहार का 
जिसका ह्रदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है 
जो आप तो लड़ता नहीं 
कटवा किशोरों को मगर......आदि, आदि.
हमारी राय है कि मासूमियत और शातिरपना दोनों किसी व्यक्ति-विशेष में, उम्र के हर मोड़ पर पाए जा सकते हैं. मगर आर्थिक स्थिति की ही तरह उम्र भी व्यक्ति के व्यवहार को काफी हद तक संचालित करती है. अतएव एक मासूम फितरत वाले बूढ़े का व्यवहार एक काइयां किस्म के धवलकेशी से भिन्न होगा. इसी प्रकार से, छल-कपट से दूर ऊर्जा से भरपूर युवा का आचरण वैसा नहीं होगा जैसा कि एक अवसरवादी नौजवान का होगा. इत्तेफाकन, इस फिल्म में स्टोनेहम एक ऐसे चरित्र के रूप में सामने आती है जिसकी निश्छलता उम्र बीतने और ज़िंदगी के कडवे तजुर्बों के बावजूद बरकरार है. वह एंग्लो-इन्डियन यानी आधी अँगरेज़ हैं मगर उनका भोला मन उनको "बेहतर भविष्य" की तलाश में पश्चिम की और जाने की इजाज़त नहीं देता. उनकी सिधाई उनको नंदिता और समरेश के इरादे भांपने नहीं देती. एक दिन जब वह सब कुछ अपनी आँखों से देख लेती हैं तो स्तब्ध होती हैं मगर कुछ कह नहीं पाती. यह संकोची स्वभाव उन्हें अपने स्कूल की प्रिंसिपल की दादागिरी को चुपचाप सहन करने को विवश कर देता है और फिल्म के आख़िरी दृश्य में छले जाने की तीव्र वेदना के बावजूद बिना तमाशा किये नंदिता और समरेश के घर से लौट जाने को विवश कर देता है. दूसरी तरफ नौजवान नंदिता और समरेश किस प्रकार के लोग हैं? नंदिता एक शातिर लडकी है जिसकी चालाकी शिष्टता की चाशनी में डूबी हुई है. उसका ज़मीर मरा हुआ नहीं दिखता मगर उसको एक आज्ञाकारी बच्चे की तरह चुटकियों में गहरी नींद सुला देने का हुनर वह जानती है. और समरेश? उसको देखकर प्राचीन सूत्रवाक्य याद आता है - निर्लज्जम सदा सुखी. वह खुद तो सुखी रहता ही, कभी-कभी अपने भीतर के मनुष्य के जागने पर दुखी हो जाने वाली नंदिता को भी यह कहकर पटा लेता है कि हम लोग क्या उस बुढिया को (उसी के घर में) कंपनी देकर उस पर कम बड़ा उपकार कर रहे हैं.
बहरहाल, यह सारी व्याख्या केवल सन्दर्भ समझाने के लिए है. जैसा कि पहले कह चुके हैं मासूमियत और शातिरपना, दोनों चीज़ें जवान और बूढ़े में समान रूप से पायी जा सकती हैं. फिल्म बनाने वालों ने अपनी बात कहने के लिए एक मासूम बूढ़े और दो चालाक नौजवानों को चुना और अपनी बात कहने में वे सफल भी हुए.
          मौक़ा निकालकर अवश्य देखें. जिन्होंने देखी है वे भी दोबारा देख सकते हैं.

2 comments:

  1. हाल ही में एक लंबे सफ़र के दौरान इस फ़िल्म को पहली बार देखने का मौक़ा मिला. बेहद ही संवेदनशील फ़िल्म है. आपके आलेख के शीर्षक से बिल्कुल सहमत हूँ क्योंकि फ़िल्म की कहानी के दो मूल तत्व यही हैं- शातिर जवानी और मासूम बुढ़ापा.
    आशा है आपके इस आलेख के ज़रिए 36 चौरंगी लेन को कुछ और सुधी दर्शक मिल सकेंगे.

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  2. ब्लाग पर आने का शुक्रिया . इस फिल्म की आप ने नए ढंग से व्याख्या की है . आभार

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