देखता हूँ एक बार फिर से "अब तक बच्चन" नाम से मेक्स चैनल पर अमिताभ बच्चन की फिल्मों की श्रृंखला परोसी जा रही है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब किसी चैनल ने इस मेगास्टार के सम्मान में ऐसा प्रयास किया हो। लेकिन बार बार उसी घिसी पिटी लिस्ट को दोहराना चैनलों को लकीर का फ़कीर साबित करता है। ऐसा भी नहीं है कि फिल्मों का चयन उनकी बॉक्स ऑफिस सफलता के आधार पर किया जाता हो। मि नटवरलाल, इन्कलाब, शहंशाह, अग्निपथ अपने ज़माने की सुपर हिट फिल्मों में नहीं गिनी जाती। सूर्यवंषम जैसी फिल्मों का प्रदर्शन तो हास्यास्पद है। किसी को याद भी नहीं होगा कि यह फ़िल्म कब रिलीज़ हुई थी। डेढ़ सौ के लगभग फिल्मों में काम कर चुके बच्चन ने बहुत कुछ ऐसा किया है जो मूल्यवान था लेकिन उसे न तो दर्शकों ने खास तवज्जो दी न ही सफलता के लिए पागलपन की हद तक बेकरार इस spoilt genius ने याद रखा। चैनलों से गुजारिश है कि आज जब बॉलीवुड में प्रयोगधर्मिता का सिक्का चल निकला है तो वे दर्शकों को बच्चन की कुच्छ ऐसी फिल्में दिखलायें जो निस्संदेह श्रेष्ठ थीं, लेकिन दुर्भाग्य से जिनको कभी महत्व नहीं दिया गया। एक संक्षिप्त लिस्ट यहाँ प्रस्तुत है:
आलाप - ज़्यादातर लोगों ने शायद इस फ़िल्म का नाम ही न सुना हो, खास तौर से वैसे दर्शकों ने जो सत्तर के दशक में या उसके बाद पैदा हुए हैं। कहना ग़लत न होगा कि हृषिकेश मुख़र्जी ने अपनी इस फ़िल्म में अमिताभ बच्चन को जितनी शानदार भूमिका दी थी शायद ही किसी और ने दी हो। अनूठा चरित्र है इस फ़िल्म के नायक का, अद्भुत है इसका कथानक और दिव्या है इसका संगीत, जो कि दुर्भाग्य से अब सुनने को नहीं मिलता।
मंजिल - इस फ़िल्म का एक गीत आज भी लोग पसंद करते हैं - रिम झिम गिरे सावन सुलग सुलग जाए मन। फ़िल्म भी बेहद दिलचस्प है। बच्चन ने इसमें वैज्ञानिक प्रतिभा से संपन्न एक युवक की भूमिका की है जो जल्दी सफलता पाने के चक्कर में ठगी करने लग जाता है।
मिली - यह फ़िल्म अक्सर जया भादुडी द्वारा निभायी गयी शीर्षक भूमिका के लिए याद की जाती है लेकिन बच्चन की भूमिका कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। उन्होंने एक ऐसे किरदार को साकार किया है जो अपनी माता पर लगे झूठे लांछनों से व्यथित हो कर स्वयं को शराब में डुबो देता है। उसकी ज़िन्दगी तब पटरी पर आती है जब मिली उसकी स्वर्गीय माँ के प्रति उदार दृष्टिकोण रखती है।
बेमिसाल- फ़िल्म भले ही फ्लॉप रही हो बच्चन की भूमिका निस्संदेह बेमिसाल है। चिकित्सा के पेशे में फैले भ्रष्टाचार के सन्दर्भ में दोस्ती के रिश्ते को उसके महानतम रूप में पेश किया गया है।
आलाप - ज़्यादातर लोगों ने शायद इस फ़िल्म का नाम ही न सुना हो, खास तौर से वैसे दर्शकों ने जो सत्तर के दशक में या उसके बाद पैदा हुए हैं। कहना ग़लत न होगा कि हृषिकेश मुख़र्जी ने अपनी इस फ़िल्म में अमिताभ बच्चन को जितनी शानदार भूमिका दी थी शायद ही किसी और ने दी हो। अनूठा चरित्र है इस फ़िल्म के नायक का, अद्भुत है इसका कथानक और दिव्या है इसका संगीत, जो कि दुर्भाग्य से अब सुनने को नहीं मिलता।
मंजिल - इस फ़िल्म का एक गीत आज भी लोग पसंद करते हैं - रिम झिम गिरे सावन सुलग सुलग जाए मन। फ़िल्म भी बेहद दिलचस्प है। बच्चन ने इसमें वैज्ञानिक प्रतिभा से संपन्न एक युवक की भूमिका की है जो जल्दी सफलता पाने के चक्कर में ठगी करने लग जाता है।
मिली - यह फ़िल्म अक्सर जया भादुडी द्वारा निभायी गयी शीर्षक भूमिका के लिए याद की जाती है लेकिन बच्चन की भूमिका कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। उन्होंने एक ऐसे किरदार को साकार किया है जो अपनी माता पर लगे झूठे लांछनों से व्यथित हो कर स्वयं को शराब में डुबो देता है। उसकी ज़िन्दगी तब पटरी पर आती है जब मिली उसकी स्वर्गीय माँ के प्रति उदार दृष्टिकोण रखती है।
बेमिसाल- फ़िल्म भले ही फ्लॉप रही हो बच्चन की भूमिका निस्संदेह बेमिसाल है। चिकित्सा के पेशे में फैले भ्रष्टाचार के सन्दर्भ में दोस्ती के रिश्ते को उसके महानतम रूप में पेश किया गया है।
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